मेरी बस-यात्रा
मुझे लगता है सरकारी बस सेवा मने रोडवेज बस पर चलना सुरक्षा और आर्थिक लिहाज से यात्रा का एक बेहतरीन विकल्प है। वैसे भी आजकल धीरे-धीरे सड़कों की स्थिति, खासकर प्रमुख शहरों को जोड़ने वाले मार्गों की दशा सुधरी है, मतलब फोरलेन या टू-लेन में परिवर्तित होते हुए स्मूथ टाइप का बन रहे हैं, यानी अब, चाहे बस की पिछली सीट पर ही क्यों न बैठें हों, आपको धचके नहीं लगेंगे। खैर..
इधर मैं बस-यात्रा के गुण गा रहा हूँ तो, वहीं इधर थोड़ा समय बचाने के चक्कर में बस-यात्रा वाली अपनी बात के उलट मैं दो-सवा दो सौ किमी की अपने कार्यस्थल की दूरी अकसर अपनी कार से, स्वयं ड्राइव करते हुए तय करने लगा हूँ। वैसे भी, मैं अपनी दो हजार चार माडल की जेन कार से बहुत प्रेम करता हूँ…क्योंकि अभी तक इस बेचारी मेरी कार ने मेरी ड्राइविंग की गलतियों का खामियाजा स्वयं अपने ऊपर भुगता है और हम पर आँच नहीं आने दिया है! भाई! इसीलिए तो हम कण-कण को चेतन मानते हैं…
हाँ तो, उस दिन मैं अपनी कार से नहीं था.. आधी दूर अपनी “वो वाली गाड़ी” से और शेष आधी यात्रा बस से तय किया था…बस कानपुर पहुँची रात के लगभग दस बज चुके थे…बस-अड्डे वाले रास्ते पर बस मुड़ते देख, मैं अपनी सीट से उठकर कंडक्टर के पास पहुँचा और कंडक्टर से पूँछा था, “क्यों कंडक्टर साहब..अगर यहाँ उतर जाएँ तो, यहाँ से इस समय लखनऊ वाली बस मिल जाएगी या नहीं?” बस-अड्डे तक न जाकर समय बचाने के लिए उधर से लखनऊ जाती बस को वहीं मोड़ पर पकड़ने का इरादा लिए मैंने बोला था। एक क्षण कंडक्टर ने मेरी ओर देखा और बोला, “नहीं साहब, इस समय इधर से बस नहीं गुजरेगी..झकरकट्टी से ही पकड़ लीजिए.. अब टाइम ज्यादा हो गया है।” मैंने कंडक्टर की बात मानी और उसके बगल में उसी की सीट पर बैठ गया था।
रास्ते पर पड़ने वाले चौराहों पर बस रूकती और यात्री उतर जाते…खाली होती बस देखकर जब कंडक्टर से मैंने पूँछा कि बस के लिए सवारी मिल जाती है या नहीं तो, कंडक्टर ने बताया था, “हाँ, मिल जाती हैं, बस-अड्डे पर तो नहीं लेकिन रास्ते में काम भर की सवारी हो जाती है, यहाँ बस-अड्डे पर सवारी का इन्तजार करते ही रह जाते हैं.. दूसरे दबंग कंडक्टर मेरी बस के आगे अपनी बस लगा कर सवारियों को अपने बस में बैठाने लगते हैं.. साहब, हम ठहरे सीधे आदमी, बोले तो झगड़ा कर बैठते हैं और गरियाने लगते हैं…इसीलिए बोलता नहीं, बस भगवान् भरोसे रहते हैं..रास्ते में बस को रोककर सवारी लेते हैं।”
कंडक्टर की सिधाई भरी मायूसी देखकर मैंने कहा, “हाँ, सरकार को भी चाहिए की बसों के चलने के बीच टाइमिंग फिक्स करे… एक ही रूट पर एक साथ दो-दो, तीन-तीन बसें निकलने लगती हैं, कम से कम इनके चलने के बीच पन्द्रह मिनट का अंतराल फिक्स कर देना चाहिए।” “लेकिन साहब इसपर तो कोई ध्यान ही नहीं देता..”इस बात पर मैंने कहा, “हाँ, यह तो ध्यान न देने वाली बात सब जगह है.. लोग अपने मतलब की बात पर ही ध्यान देते हैं।” कंडक्टर को मेरी इस बात पर आत्मीय दृष्टिकोण की झलक मिली तो वह कह बैठा, “साहब, हमी लोगों की हालत देखिए हम संविदा पर हैं..हमें एक रूपया छब्बीस पैसा प्रति किलोमीटर के हिसाब से दिया जाता है..।” मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखते हुए पूँछा, “महीने में कुल कितना मिल जाता होगा?” “अरे साहब यही कोई सात-आठ हजार के आसपास, इसी में बच्चों को पढ़ाना और किसी तरह परिवार का गुजारा करना होता है..!” मैंने अब उसकी ओर दया भाव से देखा था, इसके सिवा और कर भी क्या सकता था।
अपने प्रति मेरा दयाभाव भांप कंडक्टर ने मुझसे पूँछा, “साहब आप क्या करते हैं?” मैं बताना नहीं चाहता था और टालने की गरज से बोला था, “अरे कुछ नहीं बस हम भी ऐसे ही नौकरी करते हैं।” कई बार उसके कुरेदने पर बताना पड़ा। फिर वह बोला था, “साहब, आपके आफिस आकर आपसे मिलेंगे, भूलिएगा नहीं..” मैंने उसे आश्वस्त किया। तभी, लखनऊ की ओर जाती जनरथ की ओर इशारा करते हुए उसने कहा, ” साहब, यह लखनऊ जा रही है आप इसपर बैठ जाइए।” मैं उस संविदा वाले कंडक्टर के बारे में सोचते हुए जनरथ पर सवार हो चुका था।
वाकई! जनरथ बस में बैठे-बैठे एसी की ठंडक में, मैं यही सोच रहा था इस देश की व्यवस्था सामान्यीकृत नहीं है.. व्यवस्थाएँ भी चीन्ह-चीन्ह कर चलती हैं।