आइडेंटिटी क्राइसिस
ना जाने वो …
क्या मजबूरी थी ,
या जद्दोजहद थी ,
धन कमाने की ,
खुद को आजमाने की ।
जो … समृद्धि की चाह में
मुझे जड़ों से तोड़ ,
ले आयी मुझे …
बेगानों में ॥
अपनों से दूर ,
अंजानों में घिरा ,
तन्हा मैं ,
परदेश में हूँ ।
पर ये मन पखेरू
जब – तब
खींचा चले
अपने देश ॥
वक्त के साथ,
यादों की अंजुरी से,
लगता है ऐसे…
कुछ छूट रहा है ,
भीतर कुछ टूट रहा है
रिश्तों में दिखती हैं
अब अनचाही …
औपचारिक दरारें ॥
संघर्षशील मैं,
करूँ रोज
नाकामयाब कोशिश …
नये देश में ,
जड़ें जमाने की ।
खुद अपने ही देश में …
दोबारा रोपें जाने की
जूझ रहा हूँ …
“आइडेंटिटी क्राइसिस” से ॥
अंजु गुप्ता