गज़ल
सपने जैसा किसी के दिल में पलता रहता हूँ,
अपनी लौ में अक्सर खुद ही जलता रहता हूँ
थक जाता हूँ दिन भर की जब दौड़ भाग से मैं,
किसी शाम के सूरज सा बस ढलता रहता हूँ
भर ना जाएं कहीं ये खुद ही वक्त की मरहम से,
दिल के ज़ख्मों पर नमक मैं मलता रहता हूँ
राह में देते हैं आवाज़ मुझको लोग कितने ही,
रूकता नहीं कहीं मैं लेकिन चलता रहता है
निकला है नतीजा इतना मेरी सचबयानी का,
सारी दुनिया की आँखों में खलता रहता हूँ
— भरत मल्होत्रा