कविताएँ
विषय अफवाह
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कल मेरी मौत की उड़ी अफवाह !
सारे अखबारों ने सम्पादकीय छापे ।
सारे चैनल दनदनाते रहे चौबीस घण्टे !
बहस , वार्ताओं के दौरों में बड़े बड़े —
दिग्गज़ मेरी मौत पर चिल्लाते रहे !
सत्ता के माथे पर चमकी कुछ बूंदे !
विपक्ष मामला लपक लेने को बेचैन !
आख़िर एक “आम आदमी ” की मौत को कैश करना था
तो बहती गंगा में हाथ धोना ,कौन छोड़े ?
मैंने कहा -” पर मैं तो ज़िंदा हूँ “!
सबने कहा -” चुप रहो ! तुम अब मृत हो “।
आम आदमी की तो हम कबकी चिता जला चुके !
तो मेरी बहुत पहले हो चुकी मौत की ,
उड़ी कल अफवाह !
गुलाब
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सुनो ,
वो इक गुलाब जो तुम ,
जुड़े में सजातीं थीं ,
आज भी मेरे ज़हन पर हावी है उसकी महक |
अब तुम उलझी रहती हो ,
कुछ समेटने ,कुछ पकाने ,कुछ सँवारने में ,
बिखरे बाल तुम्हारे झूलते रहते हैं –
जैसे कोई पेचीदा गुथियाँ उलझ गयी हों !
इधर -उधर दौडती हल्दी लगे कपड़ों के साथ ,
बेतरतीब उलझी हुई दार्शनिक सी !
बहुत हुआ ,
आओ एक बार फिर से चलें समय के पार ,
जहाँ तुम सजीसंवरी ,सहज ,
चंचल अल्हड नदी सी बलखाती ,
आती थीं मुझसे मिलने ,
उन्हीं अनुभूतियोंके कैनवास में भरता हूँ वो रंग – जो कहीं कहीं से उड़ गए हैं !
एक बार तुम भी मेरा साथ दो ,
भूले प्रेम पलों का ब्रश थामे ,
उस ‘ गुलाब ‘ सजे जुड़े वाली तस्वीर को ,
फिर साकार कर दो |
परिचय
क्या परिचय दूँ अपना ?
एक बहुत बहुत खराब रचनाकार !
बहुत सारे सम्मानों के बाड़े वाले ,
बड़े बड़े रचनाकारों का झुंड ,
और उसमें हाशिये के भी हाशिये पर मेरा नाम !
गोष्ठियों , लोकार्पण समारोहों से निष्कासित ,
किसी कस्बे के सांध्य दैनिक के दसवें पन्ने का कोना ,
मेरे सृजन का साक्षी !
मैंने विचारधाराओं को नमन न किया !
बड़े समूहों , झुंडों की चरण वंदना से बनाई दूरी !
न किसी प्रकाशक से पहचान न झोले में पैसा !
तो सृजन जन तक कैसे पहुंचे ?
चलो भाव ही सम्प्रेषित हो जाये !
तो कल सारी डायरियों को रद्दी में बेच ,
पड़ोस के मुन्नू को खिला दी रोटी ,
मुन्नू का सन्तोष मेरे सृजन का ज्ञानपीठ ।
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