ग़ज़ल
द्वेष की तलवार को दी जा रही है धार, बचना।
कर लिया है अब उन्होंने घृणा को हथियार, बचना।
जो तुम्हारे और मेरे बीच में झगड़ा करा दें;
हो रहे हैं चन्द ऐसे पालतू तैयार, बचना।
मिल रही ताक़त उन्हें तो, जात-मज़हब की दवा से;
और हम सब हो रहे हैं किस क़दर लाचार, बचना।
दाँत में उसके दबी है शोख़ियों वाली शरारत;
साथ ही वो कर रहा होगा निगाहें चार, बचना।
पास उसके क़त्ल करने के तरीक़े सैकड़ों हैं;
ये न समझो सिर्फ़ इक मुस्कान ही है वार, बचना।
कौन सी तरकीब से नैया हमारी पार होगी;
हैं भँवर के बीच हम, कमज़ोर है पतवार, बचना।
–बृज राज किशोर ‘राहगीर’