आदमी हूँ, मुझे और क्या चाहिए। आदमी से ज़रा सी वफ़ा चाहिए। लोग ख़ुदगर्ज़ हैं, जानता हूँ मगर, इक भले आदमी का पता चाहिए। भीड़ ही भीड़ के इस बियाबान में, थाम ले हाथ, ऐसा सगा चाहिए। कौन है जो परेशां नहीं इन दिनों, दर्द की हर बशर को दवा चाहिए। ऐ खुदा, है नशे […]
Author: बृज राज किशोर "राहगीर"
आस्था
आस्था बस पुस्तकों पर ही टिकी होती नहीं है। यह विवादों में उलझकर अस्मिता खोती नहीं है।। बीज जो विश्वास के बोए गए अंतर्मनों में। आस्था बनकर हुए वे पल्लवित हृदयांगनों में। संस्कारों में ढली जब आस्था, विस्तार पाकर, व्यक्ति को वह शक्ति भी देने लगी दुर्बल क्षणों में। होश भी खो दे अगर इंसान […]
ग़ज़ल
दी कभी ख़ुशियाँ, कभी बेहद रुलाया दोस्तो। ज़िंदगी ने हर तरह का दिन दिखाया दोस्तो। वक़्त ऐसा भी रहा जब ज़िंदगी दुश्मन लगी, साथ इसने यार बनकर भी निभाया दोस्तो। था बहुत गमगीन उस दिन, पर सुकूँ दिल को मिला, एक बच्चा सामने जब मुस्कुराया दोस्तो। झर गए पत्ते सभी, बस डालियाँ बाक़ी रही, वक़्त […]
ग़ज़ल
वक़्त के अनुसार सबको ही बदलना चाहिए। जिस तरफ़ जाए ज़माना, साथ चलना चाहिए। गूँज वंदे-मातरम् की है फ़िज़ाओं में घुली, हम सभी के कंठ से यह स्वर निकलना चाहिए। सरहदों पर गर पड़ोसी कुछ ग़लत हरकत करे, ख़ून तो मेरी रगों में भी उबलना चाहिए। दूसरों की राह में कुछ रोशनी हम कर सकें, […]
ग़ज़ल
खबरों के साँचे में खबरें कैसे ढलती हैं। डाल मसाला अफ़वाहों का स्वाद बदलती हैं। मायाजाल अजब ही है इन खबरों का यारों, आज सही लगती हैं जो, कल झूठ निकलती हैं। यूँ तो खबरों की कुछ ज़्यादा उम्र नहीं होती, पर कुछ खबरें उम्मीदों से बढ़कर चलती हैं। इंसानी खबरों का कोई मोल नहीं […]
ग़ज़ल
कर रहा है वो हिमाक़त पर हिमाक़त। और फिर भी चाहता है बादशाहत। शाहजादे की तरह पाला गया जो, आज उस पर भेजते हैं लोग लानत। हैं ख़ुदा हम पार्टी के, देश के भी, शेखचिल्ली की अदाएँ हैं सलामत। नींव से पत्थर निकलते जा रहे हैं, है भरम, मजबूत है अब भी इमारत। वो अकेला […]
गीत – कौन हैं वे लोग
जबकि चारों ओर स्वर हिंदुत्व के मुखरित हुए हैं, कौन हैं वे लोग जो इस अभ्युदय से डर रहे हैं? हिंदुओं को हीनता के गर्त में डाला गया था। सैकड़ों सालों नपुंसक की तरह पाला गया था। तुम अहिंसक हो, तुम्हारी नियति ही है सहन करना, भीरुता के एक ढाँचे में उन्हें ढाला गया था। […]
आ गए फिर से लुटेरे
वोट का धन लूटने को, आ गए फिर से लुटेरे।। मंडियाँ सजने लगी हैं, भीड़ है व्यापारियों की। वायदों की पोटली में, गंध है मक्कारियों की। एक सी खिचड़ी पकाते, भाई मौसेरे-फुफेरे।। आसमाँ को आप अपने, पाँव के नीचे समझिए। कौन, क्या, कैसे करेगा, इस बहस में मत उलझिए। मछलियों को फाँसने में, हैं बहुत […]
एक व्यंग्य लघुकथा
हेलो! जी मैं “अलाने” शहर से तूफ़ान सिंह ‘झंझावात’ बोल रहा हूँ। क्या मैं “फलाने” शहर के कुपित कुमार ‘अग्नि’ जी से बात कर रहा हूँ? जी हाँ, मैं अग्नि ही बोल रहा हूँ। फ़रमाइए मैं क्या सेवा कर सकता हूँ आपकी? अग्नि जी, मुझे पता चला है कि आप अगले महीने अपने शहर में […]
ग़ज़ल
ज़िन्दगी के निशान आँखों में। एक पूरा जहान आँखों में। वक़्त-बेवक़्त बोलती हैं ये, है छुपी इक ज़ुबान आँखों में। क़त्ल का कर लिया इरादा तो, तान तीरो-कमान आँखों में। ठीक है, उम्र का तक़ाज़ा है, शोख़ियाँ हैं जवान आँखों में। बस रपट ही नहीं लिखी जाती, है नशे की दुकान आँखों में। आपका भी […]