लेख– उच्च शिक्षा के बिगड़ते भविष्य को देखते हुए लागू हो पोर्टिबिलिटी सेवा
आज एक बड़ी घटना बाज़ार का हिस्सा बनती जा रहीं है। वह है, पोर्टिबिलिटी। मोबाइल नंबर पोर्टिबिलिटी, बैंक पोर्टिबिलिटी। क्या शिक्षा के स्तर पर भी पोर्टिबिलिटी की सुविधा से सकारात्मक असर दिख सकता है? जवाब उत्तरित नहीं, लेकिन आज गाड़ी मझधार में हो, तो सभी घोड़े खोल देने चाहिए। तो क्या हमारी हुक्मरानी व्यवस्था निचले स्तर पर नहीं तो उच्च स्तर पर पोर्टिबिलिटी सिस्टम का जोखिम ले सकती है? परिणाम की चिंता पहले नहीं होनी चाहिए, फ़िर सुधार के लिए कोई सकारात्मक पहल तो होनी चाहिए। पोर्टिबिलिटी का नाम आते ही बहुतेरे सवालों की बौछार भी हो सकती है। ऐसे में पहला सवाल पोर्टिबिलिटी क्यों? पोर्टिबिलिटी शिक्षा के क्षेत्र में कैसे हो सकती है? पोर्टिबिलिटी से क्या फायदा? यह कुछ चुनिंदा सवाल हैं। इसका उत्तर बड़ी दूर तल्ख़ जा कर ढूढ़ने की आवश्यकता नहीं। आज के जमाने की उपभोक्ता क्या चाहती है, सुविधा। पोर्टिबिलिटी की शुरुआत क्यों हुई, कि आवाम को शुचिता और सहूलियत के साथ सस्ते में सुविधा उपलब्ध हो सकें। फ़िर इसी पोर्टिबिलिटी सेवा को अगर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में लागू कर दिया जाए, तो कुछ फ़ायदे ऐसे हो सकते हैं। पहला विश्वविद्यालयों पर अच्छी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का दवाब रहेगा। दूसरा अगर शिक्षा का स्तर नहीं सुधरा तो बच्चे दूसरे वर्ष किसी दूसरे संस्थान से जुड़कर अच्छी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। तीसरा छात्रों का जब आपसी फेरबदल होगा, तो कुछ नई चीजें अलग स्तर पर भी सीखने और अनुभव करने के लिए मिलेगी, जो भविष्य में रोजगार निर्माण की दिशा में सार्थक हो सकती हैं। अब ज्वलन्त प्रश्न यह उठता है, इसको लागू करने की जहमत कौन और क्यों करेगा, और कैसे। भले इस पोर्टिबिलिटी सिस्टम को शिक्षा के क्षेत्र में लागू करने में ढेरों रुकावट हो, लेकिन तार्किक स्तर पर विचार होने पर यह योजना क्रियान्वित हो सकती है। इस प्रोजेक्ट को लागू करने की सबसे बड़ी शर्त होगी, विभिन्न विश्वविद्यालयों के सेलेबस को एक अनुरूप में ढालना। दूसरा विश्वविद्यालयों के एक स्तर से केंद्रीयकरण करना। ये कुछ समस्याएं हैं, जो इस कार्यक्रम की रुपरेखा की रुकावट बन सकती हैं, लेकिन यह रामायण की लक्ष्मण रेखा नहीं, कि उसके पार नहीं जाया जा सकता है। इन स्थितियों को सुलझाया जा सकता है। जिसके लिए सार्थक नीतियों और दूरगामी सोच की और आशावादी दृष्टिकोण की आवश्यकता पड़ सकती है। इस भागीरथी प्रयास को करने का जिम्मा सरकार को वहन करना चाहिए। इसके क्षेत्र की सबसे बड़ी रूकावट शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती निजीकरण बन सकती है। जिससे निपटने के लिए सरकार को रूपरेखा निर्धारित करना होगा। इसके लिए सबसे पहले शिक्षा को सामाजिक भागीदारी के तहत किया जा सकता है।
शिक्षा , आज अगर संस्कार की जननी नही रही। तो रोजगार सृजन का साधन भी नहीं। भले शिक्षा किसी देश के विकास और समृद्धि की जड़ तैयार करती है। शिक्षा का कोई भी स्तर हो, प्राइमरी शिक्षा हो या उच्च शिक्षा, दोनों का उद्देश्य देश और समाज के लिए बेहतर नागरिक तैयार करना होता है। आज उससे बड़ा उद्देश्य शिक्षा का धनार्जन का साधन बनने के बाद भी नेताओं ने शिक्षण संस्थानों पर ऐसा फ़न फैलाकर बैठ गए हैं, कि वह उद्देश्य भी शिक्षा ढोने में असमर्थ हो चली है। भले शिक्षा को संविधान में मौलिक अधिकार का दर्जा प्रदान किया गया हो। जीवन निर्माण की कला शिक्षा सिखाती है। जीवन मे धन की आवश्यकता होती है, उसको कमाने का तरीका शिक्षा दिखाती है। वह सब दूर की कौड़ी साबित हो रहा है। कारण भी जिसका पानी की तरह साफ़ है। बेहतर, गुणवत्तापूर्ण और रोजगार परक शिक्षा दिलवाना सरकार की नैतिक और सामाजिक दायित्व है, जिससे वह मुखर चुकी है, क्योंकि शिक्षा को आज बिकाऊ कर दिया गया है। बाज़ार में डिग्रीयों की बोली लग रही है। इसके अलावा आंकड़ों और तथ्यों से यह जगजाहिर होता है कि चाहे वह केंद्र की सरकारें रही हों या राज्य की सरकारें, अधिकांश ने शिक्षा में सुधार की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने का ही काम किया है। मीडिया रिपोर्टस मुताबिक आयोगों और आरटीई जैसे कानून के बावजूद आज भी देश में 28.7 करोड़ अशिक्षित आवाम है। शिक्षित भी कौड़ियों के दाम तौले जा रहें हैं। 10 वीं तक आते-आते 62 फीसदी छात्र स्कूल छोड़ देते हैं। तो दलित और आदिवासी छात्रों के संदर्भ में यह आंकड़ा देखा जाए, तो बढ़कर 70 से 80 फीसदी तक पहुँच जाता है। देश में उच्च शिक्षा और शिक्षण संस्थानों की स्थिति भी मलिन और दयनीय है।आज कुकुरमुत्ते की तरह डिग्री बाटने की फ़ौज तो तैयार हो चुकी है, लेकिन उन डिग्री कॉलेज और विश्वविद्यलयों में सुविधा की कोई आधार भूत सुविधा नहीं। बच्चों को पढ़ाई के बाद जॉब की कोई निश्चितता नहीं। ऐसे में कुछ बदलाव और नया जरूर होना चाहिए।
देश की आजादी के बाद शिक्षा में सुधारों के लिए बनी खेर कमिटी ने 1949 में सिफारिश की थी कि केंद्र को अपनी आय का 10 फीसदी खर्च शिक्षा पर करना चाहिए। 1966 में कोठारी आयोग ने भी कहा कि शिक्षा पर जीडीपी का 6 फीसदी लगभग खर्च हो। उसके अलावा 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी ज़िक्र हुआ कि, राष्ट्रीय आय का 6 फीसदी शिक्षा पर खर्च हो। लेकिन हमारी रहनुमा व्यवस्था की अनदेखी कहे या आंकड़ों का खेल। आज तक की कहानी में शिक्षा पर किया जाने वाला खर्च जीडीपी का 4 फीसदी से कम ही रहा। इसके इतर औसत वैश्विक आंकड़ा लगभग पांच फ़ीसद है। देश को नए भारत की तस्वीरों का सपना दिखाया जा रहा है। स्किल इंडिया और मेक इन इंडिया जैसे प्रोग्राम के तहत नई सरकार तकनीकी संस्थानों को बढ़ावा देने की बात कर रही है, हाथी के दांत खाने के और, दिखने के कुछ औऱ होते हैं, जो इन पर किया जाने वाला खर्च व्यक्त करता है। देश के भीतर उच्च शिक्षा के हालत और भी खराब है। यहां करीब 10 फीसदी छात्र ही उच्च शिक्षा में दाखिला लेते हैं जबकि वैश्विक आंकड़ा 26 फीसदी का है। उच्च शिक्षा पर जीडीपी का केवल 1.2 फीसदी ही खर्च किया जाता है। तो ऐसे में रोजगार परक शिक्षा उपलब्ध कराने, शिक्षण संस्थानों में सुधार के लिए अन्य सकारात्मक कदम उठाने के साथ विश्वविद्यालयों और कॉलेजो के बीच आपसी पोर्टिबिलिटी की सुविधा भी प्रायोगिक रूप से शुरू करके अनुभव किया जा सकता है, कि इससे कुछ फ़ायदा हो सकता है, या नहीं।