लघुकथा

हम दोनों, सपनों की दुनिया में।

देखो न, आज तुम मेरे साथ थी। ठीक वैसे ही जैसे कभी सोचा करते थे हम दोनों, सपनों की दुनिया में।

ये शहर आज जल्दी सो गया था शायद, आज सिर्फ मैं तुम और ये खुला आसमान बिल्कुल जैसे मानों रात न हो दिन हो, शायद आज पूर्णिमा है।

तुम्हारी आँखों में वो दूर का चाँद देखना और खुद को तुम्हारे इतने पास पाना जैसे किसी सपने सा लगता है।

तुम्हारी इयररिंग वैसे ही चमक रही थी जैसे सूरज की आखिरी किरण पड़ने पर समुद्र का पानी चमकता है, चाँद की शीतल किरणें मानों हमारी पुरानी यादों की तरह पिघल कर तुम्हारे चहरे पे उतर आयीं हों ।

आज कोई फ़ासला नही था हमारा बीच, तुमने मेरी बाहों का तकिया लगा रखा था और मैं तुम्हारे साथ बिताये हर एक उस पल के साथ गुजर रहा था जिसका भारीपन कब से मेरे दिल में था।

आज हम हर उस लड़ाई का फैसला कर रहे थे, जो हमने वर्षों पहले ही क्यों न किया हो। और हमेशा की तरह आज भी गलती चाहे किसी की भी रही हो बात ”हाँ, सही कह रही हो, गलती मेरी ही थी।” इसी पर खत्म हो रही थी।

छत पर खुले आसमान में लेटकर अपने दिल की हर एक बात को खोलकर तुम्हारे सामने रख देना एक अजीब सा सुख दे रहा था जो पहले कभी भी नही मिला। तब भी नही जब लड़ाई के बाद एक ही सांस में सारी बातें कहकर तुम्हारी गलतियाँ समझाने की कोशिश करता था।

हमेशा से ही पता था, तुम भी मुझे उतना ही प्यार करती थी जितना कि मैं तुमसे। या फिर शायद उससे भी ज्यादा, हाँ पर जताना नही आया तुमको कभी। खैर मुझे कोई शिकायत नहीं, आखिर लड़की जो ठहरी ।

पर अफ़सोस आज ये आख़िरी दिन था तुमसे मिलने का, मैं तुम्हें दोष नही दे रहा और न ही कभी दे सकता हूँ, क्योंकि मैं बख़ूबी समझता हूँ तुम्हारी सामाजिक मज़बूरियों को। आखिर मनुष्य ही तो है जो शायद सबसे अच्छे से प्यार को समझता है और फिर उसे उसी प्यार की कुर्बानी दे देता है, इस समाज के रीति-रिवाजों के वज़ह से ।

बस इतनी सी गुज़ारिश है तुमसे कि अगर हो सके तो ये प्यार हमेशा बनाये रखना। हमेशा की तरह आज भी तुम्हारी खुशी के लिये अपनी खुशी को छोड़ के तुम्हारा साथ देने जरूर आऊँगा, जब भी जरूरत पड़ेगी तुम्हें।

तब तक के लिये ख़ुश रहो, प्रेम बनाये रखो, मिलेंगे फिर कभी अजनबी रास्तों पर, अगर उस ऊपर वाले ने चाहा तो…

~ राज सिंह

राज सिंह रघुवंशी

बक्सर, बिहार से कवि-लेखक पिन-802101 raajsingh1996@gmail.com