लेख– व्यवस्था की टूटी चारपाई, मीडिया और बाबा
आज की नजाकत में धर्म पर हावी विज्ञान है। फ़िर भी धर्मांधता का चश्मा समाज पर चढ़ा है। सत्ता का तख़्त सजाती जनमानस है। जनमानस और सियासी रणबाकुरों की फ़ौज लिपटी एक बाबा के चरणों में है। आज देश में न्यू इंडिया का तासा पीटा जा रहा है, क्या न्यू इंडिया में जनमानस धर्मांधता का दामन ओढ़कर और सत्ता बाबाओं की जूती बनकर रह जाएगी? लोकतंत्र का मान-मर्दन कब तल्ख़ ये ढोंगी बाबा करते रहेंगे? यह लोकतंत्र की हत्या नहीं तो क्या है, कानून- नैतिकी और मीडिया एक बाबा के समक्ष अपंग नजऱ आता है। ऐसी व्यवस्था हमारे किस काम की? सबसे पहली बात इन बाबाओं की जमात देश में तैयार कौन करता है? उत्तर ढूढ़ने के लिए ज्यादा हाथ-पैर मारने की आवश्यकता नहीं। इनकी हैसियत को जमीं से आसमान पर पहुँचती आम आवाम है, सत्ता के सियासी फ़ेर बाज फ़िर उनका भंजन वोटबैंक के रूप में करने के लिए बाबा की शरणस्थली में झुकना पसन्द करते हैं। देश की लोकतांत्रिक विरासत में यह रवायत कब ख़त्म करनी होगी? नेताओं का जनाधार इतना कमजोर क्यों पड़ जाता है, कि उन्हे ऐसे बाबाओं के पैरों में नतमस्तक होना पड़ता है?
संविधान में मीडिया को लोकतंत्र को चौथा स्तम्भ माना जाता है। इस लिहाज से मीडिया का समाज के प्रति उत्तरदायित्व और जिम्मदरियाँ बढ़ जाती हैं। मगर क्या वर्तमान वैश्विक दौर में जब कमाई का जरिया बनकर मीडिया रह गया है। वह समाज के प्रति अपने दायित्वों का सफल निर्वहन कर पा रहा है। उत्तर न में ही मिलेगा, क्योंकि लोकप्रियता का तमगा हासिल करने का जो बुखार हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को लगा है। उसके साथ प्रिंट मीडिया के कुछ एक स्वामित्व ऐसे भी हैं, जो बाबाओं के लिए माहौल तैयार करते दिखते हैं। क्या देश मे पत्रकारिता की शुरुआत इसी उद्देश्य के लिए हुई थी? कि अपनी जेब भरने के लिए नेताओं और बाबाओं के चरणों मे गिरकर चरनगुलामी करते रहो, और उनकी चिलम भरते रहो। अगर आज देश में संत- बाबाओं और मुल्लाओं की एक ऐसी फ़ौज तैयार हो रहीं है। जो समाज को अंधेरे में रखकर अपनी नजायज दुकान चला रहें हैं। तो उसकी गुनहगार हमारी लोकतांत्रिक मीडिया भी है। जो पैसों की सेज़ पर सोने की चाहत पालते हुए, इन ढोंगी बाबाओं और मुल्लाओं का खुले आम प्रचार-प्रसार करती है। जिससे आम जनमानस प्रभावित होकर इन बाबाओं और कठमुल्लों के क़दमो में झुक जाती है। फ़िर इन संत, बाबाओं की अपनी अंदुरुनी दुकान चलती है। जिसकी खबर शुरुआती दौर में किसी के पास नहीं होती।
आज के वैश्विक युग मे भी अगर हमारी सामाजिक जड़ता पीछा नहीं छोड़ रहीं। तो इसका निहितार्थ यही है,कि समाज ने चन्द्र और मंगल तक उड़ान भले भर ली हो, लेकिन, धर्म और आस्था के नाम पर होने वाला नासूर समाज से दूर नहीं गया है। आज देश में करीब 30 लोगों की जान जाती है, सैकड़ों घायल हो जाते हैं क्योंकि एक धार्मिक गुरु को गुनहगार ठहराया जाता है। धर्म और आस्था के नाम की चिंगारी हिंसा की सुनामी बनकर हजारों सुरक्षाकर्मियों को ध्वस्त करते हुए सड़कों को खून से लहूलुहान कर देती है। देश के कई राज्यों में कानून-व्यवस्था चरमरा जाती है। किसलिए? क्योंकि बहुत से लोगों को उनकी आस्था के आगे किसी कानून, संविधान और नैतिकता की परवाह नहीं है। क्या यही लोकतंत्र की परिपाटी में संवेधनिक ढांचे में रखा गया था? क्या भारतीय राजनीति का असल में यही न्यू इंडिया का प्रारूप है? सवाल तो बहुतेरे हैं, लेकिन जवाब ढूढ़ने होंगे, हमारी व्यवस्था को। समाज को, और उग्र हुई भीड़ को भी सोचना होगा, देश के भीतर क्या एक ढोंगी की हैसियत संविधान, लोकतंत्र और व्यवस्था से भी सर्वोपरि हो सकती है? जिस देश के युवा देश में किसी लड़की के साथ हुए घिनोने अपराध के बाद कैंडिल मार्च करते हैं, फ़िर ऐसी क्या स्थिति निर्मित हो गई, कि बलात्कार के मामले में गुरमीत राम रहीम को अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने पर उनके समर्थकों ने हरियाणा-पंजाब से लेकर दिल्ली-यूपी तक आतंक मचा दिया। इसके साथ इन प्रदेशों को आग की लपटों के हवाले करने की हिमाकत की।
आज का हमारा मीडिया लोगों को जागरूक करने की जगह भ्रमित करने का काम कर रहा है। लोकतंत्र के अन्य स्तंभों विधायिका ,न्यायपालिका , और कार्यपालिका के सभी क्रियाकलापों पर नजर रख कर उन्हें भटकने से रोक सकता है , लेकिन विगत कुछ वर्षों से मीडिया सरकारों और संत-महात्माओं के चरणों में नतमस्तक हो चुका है। पैसों की बढ़ती ललक, और अपनी टीआरपी के लिए मीडिया समाज को वास्तविक ता दिखाने से कतराता है। मीडिया अपने विचार रखने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन जब वह बाबाओं के विज्ञापन और विज्ञापन के रूप में कार्यक्रम प्रसारित और प्रचारित करने लगे। फ़िर चंद सवाल उठते हैं। क्या मीडिया उसे मिली आजादी को पूरी जिम्मेदारी से जनहित के लिए निभा पा रही है ? क्या वह अपने कार्य कलापों में पूर्णतया ईमानदार है ? अगर ईमानदार है, तो फ़िर हमारी मीडिया भेड़- चाल चलने को विवश क्यों है। खबरों की प्रामाणिकता भी कोई विषय होता है, वह जल्दबाज़ी के चक्कर में क्यों खो जाता है? जो गुरमीत के मुद्दे में दिखा। हम यहां पर गुरमीत को राम- रहीम से सम्बोधित नहीं कर रहे, क्योंकि कोर्ट के फैसले ने यह स्पष्ट कर दिया है, कि ऐसे संत राजनेताओं और आज की मीडिया की ही देन हैं। जो कि अपने राजनीतिक और पूंजीगत लाभ के लिए सामाजिक व्यवस्था के समानांतर खड़े किए जाते हैं। आज मीडिया को अपने हित की ज्यादा फ़िक्र है। तभी तो वह टीआरपी के चक्कर में पड़ कर विश्वसनीयता को भी खो रहीं है। पिछले दिनों गुरमीत के केस में जो वाकया मीडिया के तऱफ से दिखा। उससे क्या समझा जाए। कोर्ट द्वारा 20 वर्ष की सजा का एलान होता है, और सबसे तेज और पहले ख़बर पहुचाने के फ़ेर में फंस कर मीडिया कौआ कान ले गया कि तर्ज़ पर दस वर्ष की सजा की जानकारी देता रहा। ये तेज और बढ़ती मीडिया का कौन सा रूप है। जो एक ख़बर को सटीकता के साथ समाज के सामने रखने में अपने को सक्षम नहीं पाता। ऐसे में वर्तमान मीडिया से क्या उम्मीद की जा सकती है?
एक भक्त परम्परा में राम और रहीम दोनों अपनी चमक रखते हैं, लेकिन इस राम रहीम ने नाम को बदनाम किया। समाज के सामने बलात्कारी बाबा न राम रह सके, न रहीम। देश में आज के दौर में ऐसी दुकानदारी कैसे पनप जाती है। वहीं से समस्या की जड़ शुरू होती है। एक बाबा अगर पांच करोड़ भक्त होने का दावा करता है। इससे यह स्पष्ट होता है। देश अभी भी भेड़-चाल से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सका है। देश आधुनिकता की गीत गा रहा है, समाज पश्चिमी सभ्यता को देखते हुए नगीयत का दामन थाम चुका है। फ़िर धर्म और आस्था के विषय पर कोई सोच-विचार क्यों नहीं करता? देश ने इसके पहले भी धर्म और आस्था के नाम से समाज को डसने वाले बाबाओं और संत परम्परा को चुना लगाने वालों को देखा है, इसलिए अब आंख बन्दकर विश्वास करने की परिपाटी त्यागें। नहीं तो ऐसे ही राम रहीम का चोला ओढ़कर समाज को बदनाम करने की साजिश होती रहेंगी, और तख़्त की सियासत में सत्तारूढ़ सियासी सियासतदां इनके चरण की चरणपादुका बनते रहेंगे। इसके इतर देश और समाज को अपने धर्म रूपी अधार्मिकता के दंश से समाज को डसते रहेंगे?
जिस देश की परम्परा में दैवीय शक्ति को ईश्वर माना जाता है, वहां पर मानवीय भगवान और संतों का हुजूम भी तो मीडिया और समाज ने ही तैयार किया है। अब उसका परिणाम हमारा समाज ही भुगत रहा है। देश में व्यक्ति की पूजा का उल्लेख कहीँ नहीं, फ़िर क्यों मानवीय संत परम्परा को ईश्वरीय शक्ति के सापेक्ष खड़ा कर समाज को विकृत करने का प्रयास किया जा रहा है ? अगर देश में आडम्बर, ढोंग बढ़ रहा है, तो उसके जन्मदाता भी हमारी मीडिया और हमारा समाज ही है। अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन और टीवी कार्यक्रम में बाबाओं के ज्ञान को परोस कर ही तो हमनें आस्था और विश्वास की कड़ी के समक्ष आडम्बर का प्रहरी तैयार किया है। अब इस ढोंगीपने को समाज द्वारा तिलांजलि देना होगा। तभी समाज इन मानवीय आडम्बरों से अपना पिंड छुड़वा सकती है। इक्कीसवी सदी के वैज्ञानिक युग में अनेक चैनल दर्शकों को सदियों से चली आ रही रूढ़ियों , ढोंग एवं आडम्बर की विचारधारा से युक्त सामग्री प्रस्तुत करते हैं । कुछ चैनलों ने नए तरीके का आडम्बर युक्त माहौल खुद निर्मित किया है। देश अगर बाबाओं और मुल्लाओं के बढ़ते असमाजिक कृत्यों से बेहाल है, और मानवता शर्मशार हो रही है। तो दूसरी और समाज किसी चैनल पर किसी बाबा के कृपा बरसाते विज्ञापन की शक्ल में चल रहें कार्यक्रम से भी अपनी श्रद्धा भक्ति प्रदर्षित कर रहा है, जिससे स्वच्छ वातावरण प्रभावित हो रहा है। चैनल संचालकों को तो सिर्फ अब अपनी आमदनी से मतलब है। समाज सरोकारिता का विषय कहीँ गुम से हो गया है। फ़िर दोषी तो खुद आवाम है, जो इक्कीसवीं सदी में , आधुनिकता के आड़ में जीने के बावजूद बाबाओं और मुल्लाओं की जद में क्यों सिमटता जा रहा है।
भले ही हरियाणा में मचे उपद्रव के बीच केंद्र सरकार ने खट्टर सरकार को फटकार लगाई हो, लेकिन यह सत्य है, कि सत्ता के भूखे शेर अपने तख़्त के लिए बाबा के चरणों की धूल बनें रहे, सत्ता अपने रंग में मस्त दिखी, जनता पस्त दिखी। अब जांच की टीम भी गठित होगी। इस जांच के क्या अर्थ। अगर समय रहते सरकार चेती नहीं? अगर धारा 144 के बावजूद इतने भारी मात्रा में बाबा के समर्थक इकठ्ठा हुए, मतलब साफ है, सत्ता भी बाबा के चरणों की दासी बनी दिखी, क्योंकि जब हरियाणा सूबा रामपाल और जाट आंदोलन का दंश झेल चुका है, फिर उससे कुछ सीख क्यों नहीं ली गई? हरियाणा में बाबा समर्थित अंध भक्तों का यह कोई पहला तांडव नही था, जिसने मानवता की चोली उतारकर राक्षसी वेश धारण किया हो। इसके पहले भी रामपाल के समर्थकों ने हिसार में अपना आतंक मचाया था। ऐसे में अब जब राम और रहीम दोनों नाम को समेटने वाले बलात्कारी बाबा का पर्दाफाश हो गया है। उसके बाद लोकतंत्र के रक्षक और आवाम को बहुतायत प्रश्नों के हल ढूढ़ने होंगे। जिसमें पहला सवाल राजनीति का स्तर इतना घटिया क्यों, कि वह एक बलात्कारी के समर्थन में खड़ा होना पड़ा? लोकतांत्रिक भावना का भंजन सत्ता हित के लिए क्यों? राजनीति और तर्कशास्त्र इन ढोंगी बाबाओं के सापेक्ष कमज़ोर क्यों पड़ जाते हैं? आज़ादी से पूर्व अभी तक बाबाओं के वेश में समाज को छला, बहुतेरे बाबाओं ने, फ़िर अंधभक्ति और विश्वास का झूठा चश्मा समाज क्यों नहीं त्याग रहा? अब वक़्त की नजाकत कहती है, पहले व्यक्ति को परखों, फ़िर अपनी श्रद्धा और विश्वास को परोसो। इन विषयों पर मनन हमारे समाज को करना होगा, तभी राम रहीम जैसे निकृष्ठ संतों के वज्र से देश मुक्त हो पाएगा।
आज अगर ऐसे बाबाओं के कार्यक्रम और आडम्बरों को बढ़ावा मीडिया दे रहा है, तो गलती हमारे समाज की ही है जो ऐसे कार्यक्रम देखती है। क्या मीडिया द्वारा दिखाई जाने वाली दकियानूसी बातों से समाज का भला हो सकता है ? नहीं, फ़िर ऐसे कार्यक्रम समाज देखता क्यों है। वैसे तो परिवार और समाज के लिए लोगों के पास वक्त नहीं होता। फिर इन कार्यक्रम को देखने के लिए वक्त कहाँ से आ जाता है। क्या समाचार पत्रों को अपनी कठोर नियमावली बना कर विज्ञापन स्वीकार करने की जिम्मेदारी नहीं निभानी चाहिए ? ताकि जनता भ्रमित न हो और वह ठगने से बच सके ? साथ ही साथ समाज को भी सचेत होना पड़ेगा, तभी समाज इन आडम्बरों से मुक्त हो पाएगा।