सामाजिक

लोकतंत्र में बढ़ता बाबा तंत्र

साधू संतों को पूजने की परिपाटी हमारे देश में बहुत पुरानी है। पहले चतुर्मास में साधू सन्यासी गांव के बाहर किसी मंदिर में या नदी किनारे कुटी बना कर रहते थे। इस अवधि में गांव वाले जिसकी जैसी हैसियत होती थीं उनकी सेवा करते थे। बदले में यह साधू सन्यासी भोले भाले ग्रामीण लोगों को सरल भाषा में ज्ञान की बातें बताते थे। चतुर्मास बीतने पर यह साधू सन्यासी पुनः अपनी यात्रा पर निकल जाते थे।
धीरे धीरे इन संतों ने अपने स्थाई आश्रम बनाने शुरू कर दिए। इसके लिए उनका कोई अनुयाई अपनी भूमि दान में दे देता था। अब उनके अनुयाई उनके आश्रम में आते थे। अपनी सामर्थ्य के अनुसार आश्रम को दान देते थे। समय के साथ संतों का प्रभुत्व बढ़ने लगा। एक संत की महानता उसके ज्ञान से नहीं बल्कि उसके अनुयाइयों की संख्या और आश्रम की संपत्ति से आंकी जाने लगी।
अपनी समस्याओं में फंसी जनता को जब सरकार और समाज से न्याय नहीं मिलता तो वह इन संतों के आश्रम में मन की शांति पाने के लिए जाने लगी। अपने बढ़ते प्रभाव के मद में चूर इन संतों ने उन दुखी जनों के समक्ष खुद को भगवान की तरह प्रस्तुत करना शुरू कर दिया। उन्हें यह यकीन दिलाया कि वह उनके सभी दुख हर सकते हैं। व्यथित मन बहुत जल्दी चमत्कारों की तरफ खिंचने लगता है। अतः चमत्कार की आस लिए उनके भक्तों ने इन संतों को ही भगवान मान कर अपना सब कुछ सौंप दिया। यह भक्त अपने भगवान के लिए कुछ भी करने को तैयार रहने लगे।
इस प्रकार देश भर में कई बाबा पैदा हो गए। ना सिर्फ देश के बल्कि विदेशों में बसे लोग भी इनके भक्त बनने लगे।
अब बाबाओं का चोला भी बदलने लगा। दाढ़ी बढ़ाए गेरुआ चोला पहने बाबाओं ने अपनी दाढ़ी मूंछें मुड़ा लिए। रुद्राक्ष की जगह रत्न जड़ित अंगूठियां तथा अन्य आभूषण पहनने लगे। स्वयं को किसी सन्यासी की जगह किसी देवता की तरह प्रस्तुत करने लगे। पहले सन्यासी स्त्री भक्तों से कुछ दूरी बनाए रखते थे। लेकिन आज के बाबाओं के इर्द गिर्द चेलियों की संख्या अधिक रहने लगी।
बाबाओं के बढ़ते प्रभाव को देख कर राजनीति से जुड़े लोगों ने इन बाबाओं का रुख किया। लोगों पर उनके प्रभाव का अपने हित में प्रयोग करना शुरू कर दिया। इसके बदले में बाबाओं को बहुत सी रकम, भूमि तथा अन्य सुविधाएं दान के रूप में मिलने लगीं। अब बाबाओं की हनक सत्ता के गलियारों तक पहुँच गई।
नेताओं के साथ साथ अभिनेता तथा व्यापार जगत के लोग भी इन बाबाओं के भक्त बनने लगे।
समाज में रसूख रखने वाले लोगों को इन बाबाओं के सामने नतमस्तक देख कर आम जनता और अधिक संख्या में इन बाबाओं की तरफ आकर्षित होने लगी।
हर तरफ अपनी जयकार होते देख तथा बढ़ती संपदा के मद में चूर बहुत से बाबा विलासी हो गए। आश्रमों में महिला भक्तों का यौन शोषण होने लगा। कई अन्य अनैतिक कार्य भी होने लगे। कुछ बाबाओं ने इन सब पर पर्दा डालने के लिए समाज सेवा के कुछ काम करने आरंभ कर दिए। कोई आवाज़ ना उठा सके इसके लिए बाबाओं ने अपनी एक फौज भी तैयार कर ली। अंधभक्ति तथा भय के कारण लोग कुछ बोलते नहीं थे।
यह थी कहानी कि किस प्रकार इस लोक तंत्र में बाबाओं का एक प्रभावशाली तंत्र खड़ा हो गया।
लेकिन कुछ लोगों ने खासकर इन बाबाओं के यौन शोषण की शिकार महिलाओं ने इनके विरुद्ध आवाज़ उठाई। जिसके कारण खुद को भगवान समझने वाले बाबाओं को भी न्याय प्रणाली की शक्ति समझ में आई।
विचारणीय प्रश्न है कि आखिर वह कौन से कारण हैं जिनके कारण हमारे समाज में बाबाओं का महत्व इतना बढ़ गया। क्यों लोग इन बाबाओं की अंधभक्ति करने लगे? यहाँ तक की बाबाओं के इशारे पर मरने मारने को तैयार रहने लगे। यह प्रश्न जितने गंभीर हैं उतना ही इनके उत्तर तलाशना ज़रूरी है। ताकि आने वाली पीढ़ियों को इन ढोंगी बाबाओं से मुक्ति दिलाई जा सके।
सबसे पहले हमें इन बाबाओं के चंगुल में फंसने वाले साधारण लोगों की मनोदशा को समझना होगा। इन्हीं लोगों के दम पर यह ढोंगी बाबा ऊपर तक पहुँचते हैं। इन बाबाओं के फेरे में पड़ने वाले अधिकांश लोग गरीब व अशिक्षित होते हैं। हर कोई किसी ना किसी समस्या से जूझ रहा होता है। कोई गंभीर बीमारी का शिकार होता है। बीमारी के महंगे तथा लंबे चलने वाले इलाज से मुक्ति का कोई अन्य उपाय ना देख कर बाबाओं की शरण में आ जाता है। कोई बेरोज़गार होता है तो कोई अपनी संतान के भविष्य को लेकर चिंतित।
एक और कारण है जिसके चलते अमीर हो या गरीब, शिक्षित हो या अनपढ़ सभी बाबाओं के आश्रमों में खिंचे चले जाते हैं। भौतिकतावाद की इस अंधी दौड़ में हम सबके अंदर एक निर्वात पैदा हो रहा है। रिश्तों के बीच का भावनात्मक लगाव कम होता जा रहा है। प्रेम की ऊष्णता की जगह स्वार्थ की बर्फानी ठंडक ने ग्रहण कर ली है। अतः जब कोई बाबा मंच पर खड़ा हो कर प्रेम की बात करता है। सभी दुखों को दूर करने का दावा करता है तो व्यथित ह्रदय को बहुत अच्छा लगता है। वह उस बाबा की तरफ खिंचने लगता है।
हमारा लोभ भी एक बड़ी वजह है जो हमें इन बाबाओं के चंगुल तक ले जाती है। हमारी आकांक्षाएं, अपेक्षाएं बढ़ रही हैं। हर इच्छा     कुछ ही समय में आवश्यक्ता बन जाती है। हम उन्हें पूरा तो करना चाहते हैं किंतु पुरुषार्थ से अधिक हमें चमत्कार पर विश्वास होता है।
किसी पर श्रद्धा रखना बुरा नहीं है किंतु हमें श्रद्धा और अंधश्रद्धा के फर्क को समझना होगा। श्रद्धा हमें स्वयं पर यकीन करना सिखाती है। हमें आंतरिक रूप से मज़बूत बनाती है। जिससे हम अपनी समस्याओं का हल स्वयं निकालना सीख सकें। जबकि अंधश्रद्धा चमत्कारों का भ्रमजाल फैला कर हमें डरपोक बनाती है। हम अपने ऊपर से विश्वास खो देते हैं। ऐसे में हम मानसिक रूप से गुलाम बन कर रह जाते हैं।
इच्छा करना बुरा नहीं है। लेकिन उनकी पूर्ति के लिए किसी चमत्कार की उम्मीद करना सही नहीं है। बिना परिश्रम के कुछ नहीं मिलता।
इस बढ़ते बाबा तंत्र को रोकने के लिए आवश्यक है कि लोगों में इस विषय में जागरूकता पैदा की जाए। उन्हें इस योग्य बनाया जाए कि वह श्रद्धा व अंधविश्वास का अंतर समझ सकें। परिश्रम के महत्व को समझाया जाए। श्रम का आदर करना सिखाया जाए। हमारे समाज में श्रमिक वर्ग को वह मान नहीं मिलता है जितना लोगों की मजबूरी का लाभ उठाने वाले बाबाओं को मिलता है।
बचपन से ही बच्चों को खुद पर यकीन करना सिखाना चाहिए ताकि छोटी आयु से ही वह चमत्कारों का आसरा छोड़ अपनी मेहनत पर यकीन कर सकें।  लेकिन इस काम का दायित्व समाज के हर वर्ग को लेना होगा। यह काम केवल स्कूल या अन्य संस्थाओं पर ही नहीं छोड़ना चाहिए। इसकी ज़िम्मेदारी अभिभावकों व अन्य संबंधियों को भी लेनी होगी। ऐसे बहुत से धर्म गुरू हैं जो समाज को सही दिशा दिखा सकते हैं। इन आध्यात्मिक गुरुओं को भी आगे आकर लोगों में जागरूकता फैलानी होगी।
इसके अतिरिक्त हमें आपसी संबंधों पर भी ध्यान देना होगा। इस बात पर ध्यान देना होगा कि हमारी आपसी समझ, संवेदना में क्या कमी है कि कोई उसकी पूर्ति करने के लिए इन बाबाओं की शरण लेता है।

*आशीष कुमार त्रिवेदी

नाम :- आशीष कुमार त्रिवेदी पता :- C-2072 Indira nagar Lucknow -226016 मैं कहानी, लघु कथा, लेख लिखता हूँ. मेरी एक कहानी म. प्र, से प्रकाशित सत्य की मशाल पत्रिका में छपी है