लेख– आधुनिकता की आड़ में बदलती गुरु शिष्य की परिभाषा
गुरुर ब्रह्मा गुरुर देवो महेश्वरा गुरुर साक्षात परब्रम्ह तस्मै श्री गुरुवे नमः आज यह उक्ति हमारे शैक्षिक परिवेश में शिक्षकों और छात्रों के बीच क्रियान्वित होती नहीं दिखती। आज शिक्षक और छात्रों के बीच खाई गहरी होती जा रहीं है। गुरु हमारे पुनर्जन्म का गर्भ होता है जहां से हमारा सही अर्थों में दोबारा जन्म होता है एक जन्म जो हमें माता पिता से मिलता है, दूसरा जन्म हमें गुरु से प्राप्त होता है। सही गुरु के मार्गदर्शन के बिना ना तो किसी बेहतर राष्ट्र का निर्माण हो सकता है और ना ही हमारे सही जीवन का संचालन। ऐसे में गुरु की महत्ता स्पष्ट होती है,कि बेहतर गुरु के बिना न बेहतर राष्ट्र का निर्माण हो सकता है, न ही बेहतर भविष्य के चरित्र का निर्माण। एक कुशल संचालक की भूमिका छात्र जीवन में गुरु का होता है। जो छात्रों के जीवन रूपी घड़े को आकार देने का कार्य करता है। वर्तमान दौर में देखना होगा, कि क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था में गुरु-शिष्य की वह परम्परा बची है। उत्तर स्पष्ट है, बदलाव प्रकृति का नियम है, जिसमें परिवर्तन होना भी चाहिए। जो दृष्टिगोचर होता है। शिक्षक और छात्र आज एकसार हो जाते हैं, लेकिन ऐसे में वे दोनों अपने पद और गरिमा को भूल जाते हैं, फ़िर वहीं से स्थिति गड़बड़ होने लगती है।
आज शिक्षा दिमाग की खिड़कियां खोलने का काम नहीं करती, बल्कि वह मस्तिक के सोचने का ढंग तय करने लगी है। साहित्य और इतिहास भी प्रचार या प्रौपेगंडा में बदल रहे हैं। आज शिक्षा को ज्ञान के स्तर से नहीं बल्कि पैसे के स्तर से देखा जाने लगा है। शिक्षकों और छात्रों के बीच आज वह रिश्ता देखने को नहीं मिलता, जोकि होना चाहिए। परंपरागत स्कूलों के शिक्षकों को अध्ययन, अनुशासनप्रिय, और सख्त माना जाता है जबकि आधुनिक स्कूल के शिक्षकों पर दबाव अधिक है। भारत में शिक्षकों और गुरुओं के पक्ष में खोखले तर्क देने के बजाय हमें हमारी शिक्षा व्यवस्था की बुराइयों की तरफ देखना चाहिए। आज का सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या हम शिक्षक और छात्रों के बीच में वह रिश्ता देखते हैं जो कि पारंपरिक गुरुकुल व्यवस्था में था। अगर आज के दौर में अभिभावक और छात्र मोटी रकम देकर शिक्षा खरीदने को सोच रहा है। तो वह भी सही परिस्थिति नहीं कही जा सकती। और अगर शिक्षक अपने दायित्व और कर्तव्य का निर्वहन उचित ढंग से नहीं कर रहा है। तो यह हमारी शिक्षा व्यवस्था का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है। आधुनिक स्कूलों में शिक्षक बच्चों को हाथ लगाने से भी भय आज के दौर में खाते हैं। जब यह उक्ति प्रचलित है, कि भय बिन प्रीत न होय। फ़िर जब छात्रों पर कोई दबाव नहीं होगा। ऐसे में वे हवा में बातें करेगें। जब छात्रों पर शिक्षकों का कोई दबाव नहीं होगा तो ऐसे में शिक्षक और छात्रों के बीच जो गुरु और शिष्य की परंपरा रही है वह टूट जाएगी।
आज अगर हमारा समाज अपने उचित रास्ते से भटक गया है तो उसके लिए कही न कही जिम्मेदार हमारी शिक्षा व्यवस्था भी है, जोकि गुरु और शिष्य की परिकल्पना से अलग हो गई है। छात्र और गुरु के बीच वह परंपरा देखने को नहीं मिलती जो की होनी चाहिए। छात्र शिक्षकों को खरीदकर ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। तो वही शिक्षक भी इसे अपनी खानापूर्ति समझकर पठन -पाठन का कार्य कर रहा है। शिक्षक और छात्र में तालमेल की साफ़ कमी झलकती है। शिक्षक भी पैसे को महत्व दे रहा है। क्या हमारी शिक्षा प्रणाली का यही उद्देश्य था? जो आज व्यवसाय का रूप ले रहीं है। क्या शिक्षक और गुरु के लिए यही एक रिश्ता था? कि आज का छात्र कक्षा ही नहीं बाहर भी अपने गुरुओं का आदर नहीं करता। जब तक शिक्षा अपने मूल्य उद्देश्य को नहीं ढूंढ़ पा रही। तब तक शिक्षा अपने प्रयोजन में सफल नही होगी। आज शिक्षा के इस दौर में बच्चों को विचारधाराओं से जोड़ा जा रहा है। किसी को दक्षिणपंथी तो कोई वामपंथी विचारधारा थोपना चाहता है। शिक्षा का उद्देश्य सभी विचारों को अवगत कराने से होना चाहिए ना कि किसी व्यक्ति और विशेष विचार से अवगत कराने का होना चाहिए, लेकिन आज जो रवायत हमारी सामाजिक परिस्थिति और शैक्षणिक प्रणाली में देखने को मिल रही है वह भी विचारधारा से प्रेरित होकर चलने को मजबूर है। अगर किसी छात्र को किसी एक विचारधारा से अवगत कराया जाएगा, तो वह दूसरी विचारधारा को समझ नहीं पाएगा । क्या आज हमारे समाज को किसी एक विचारधारा से उन्नति की ओर अग्रसर किया जा सकता है? हमारे समाज को यह सोचना होगा छात्रों को सभी विचारधारा और सभी महापुरुषों के विचारों से अवगत कराया जाए। इतिहास को जानना छात्रों का हक है, राजनीति उससे वंचित नहीं कर सकती। उसके बाद यह छात्रों पर निर्भर करता है कि वह सभी को समझते हुए किस तरह समाज और देश की उन्नति में भागीदारी दे सकता है। शिक्षा को मात्र नौकरी के लिए प्राप्त करना आज हमारी सबसे बड़ी मजबूरी बन गई है। हम जीवन में एक अच्छे गुरु की परिकल्पना को एक कुम्हार और जौहरी से कर सकते हैं। कुम्हार जो अपने बेहतरीन हाथों से मिट्टी चाक पर चलाकर दुनिया को नया तोहफा देता है। वहीं दूसरी तरफ जौहरी जो हीरे और सोने को पिघलाकर एक ऐसा आकार देता है जो कि सभी को अचंभित कर देता है।
समाज को नवाचार और दिशा प्रदान करने की भूमिका शिक्षक की होती है। शिक्षक समाज का निर्माता होता है। समाज को राह दिखाने का सारथी होता है। अगर सामाजिकता की पहली पाठशाला मां से बच्चों को प्राप्त होती है, तो व्यवहारिकता और चरित्र निर्माण का ज्ञान उसे शिक्षक से प्राप्त होता है। शिक्षक वह प्रकाश पुंज है जो अज्ञान के तमस को दूर कर बच्चों के जीवन में ज्ञान का दीपक प्रज्वलित करता है। शिक्षक ज्ञान का सागर होता है, लेकिन आधुनिकता के इस युग मे जब समाज में पैसे की धमक बढ़ी है। उस परिस्थितियों में अज्ञानियों की फ़ौज भी तैयार हो रही है। आज नकल माफियाओं की जद बढ़ रहीं है, वैसे में शिक्षा का स्तर और शिक्षक के ज्ञान का स्तर भी कमजोर हुआ है। शिक्षक को समाज ने हमेशा सर्वोच्च पद देकर उसकी बुद्धिमता और ज्ञान का सम्मान किया है। बड़े-बड़े राजाओं के मस्तक शिक्षक के चरणों में नतमस्तक हुए है। हमारे वेद-ग्रंथों में शिक्षक को साक्षात् ब्रह्मा, विष्णु व महेश की संज्ञा दी गई है। शिक्षक समाज की धुरी है जिसके मार्गदर्शन में देश का निर्माण करने वाला भविष्य सुशिक्षित व प्रशिक्षित होता है। नरेंद्र को स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस ने , तो चाणक्य ने अपने ज्ञान से चन्द्रगुप्त जैसा शासक उत्पन्न किया। शिक्षक केवल किताबी ज्ञान ही नहीं अपितु जिंदगी जीने की कला भी सिखाता है। आज गुरु-दक्षिणा की जगह मोटी फीस का प्रचलन हो गया है। अगर बच्चों के चाल-चलन में बदलाव हुआ है, तो शिक्षक के आचरण में भी बदलाव दिख रहा है। पैसे देकर डिग्री खरीदी जा सकती है। ऐसे में शिक्षक की सही पहचान धूमिल होती जा रही है। अगर आज अच्छे शिक्षकों का अभाव है, तो अच्छे और अनुशासन प्रिय छात्रों की संख्या भी कम हुई है। हमारे देश ने सर्वपल्ली राधाकृष्णन, अब्दुल कलाम, जैसे शिक्षकों को उत्पन्न किया है, फिर सभी शिक्षकों पर सवालिया निशान नहीं उठाया जा सकता। बस थोड़े से बदलाव से हम और हमारे शिक्षा व्यवस्था में बदलाव देख सकते हैं। सबसे बडी बात अगर आज का अभिवावक शिक्षकों के रूप में गुरु द्रोण, श्रीकृष्ण देखना चाहता है, तो पहले अर्जुन और एकलव्य जैसे छात्र भी जन्म लेने चाहिए।