मानवता
आज शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मात्र आर्थिक उन्नति तक ही सीमित रह गया है जबकि समाज की पूर्ण उन्नति तभी सम्भव है जब व्यक्ति य समाज पूर्ण रूप से आत्मिक नैतिक व चारित्रिक आर्थिकरूप से सभी छेत्रों में उन्नतिशील हो।
मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य भोग मात्र ही नही वरन् सुसभ्य नैतिकता युक्त नागरिक बनना तथा मानव मूल्यों को समझना भी है।जबतक हम मानव मूल्यों को नही समझेंगे तब तक मानव मानव के बीच रक्त पात होता ही रहेगा क्योंकि ऐसी दशा मे भोगवाद के भ्रम मे मानव-मानव को शोषित कर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति असंवैधानिक तरीकों से करता ही रहेगा।
यदि बच्चे मे नैतिकता का संचार भी साथ साथ किया जाय तो वह प्रत्येक कार्य निष्ठा व ईमानदारी से करेगा और सुखी होगा।
विचारणीय प्रश्न यह है की यदि इसी तरह नैतिकता का लोप समाज से होगा तो वह दिन दूर नही जब सम्पूर्ण समाज मे अनैतिक लोग ही होंगे पशु प्रबृत्ति होगी अंग प्रदर्शन की प्रथा होगी तब क्या होगा ? यदि शिक्षा के माध्यम से नैतिकता युक्त समाज बने तो आपस मे प्रेम से रहते हुए भी आधुनिक उन्नति की जा सकती हैं।
आज प्रेम की परिभाषा बदलती दिखाई देती है।संस्कारयुक्त सीमाओं की मर्यादाओं का उलघ्घन किया जा रहा है।
उपदेश स्थल को मनोरंजनस्थल समझते हैं,
उपदेशक को भगवान ।।
ज्ञान लेन को गए थे,करत वहां पर गांन।
करत वहां पर गांन,सभी फिर नाचत भाई;
एक दूसरे के हाथ पकड़ फिर गैर लुगाई।।
नृत्य करत वासना मे,बह गए भक्त तमाम ;
किसहित आये हम यहां,रहा नही कुछ ध्यान।।
मनुष्य के मष्तिष्क मे दो तरह की भाव युक्त विचार स्थिर है अच्छे एवम् खराब अगर हम अच्छे का माहौल पैदा करे तो अच्छा और खराब का माहौल बनाये तो वैसे ही विचार मनुष्य के अंदर विकसित होगें और आधार पर समाज का निर्माण होगा।।
यह दो तरह के विचार आज से नही जब से सृष्टि मे मानव जाती आई तभी से मनुष्य के मन मे विद्यमान है इससे यह बात स्पष्ट होती है की मनुष्य के विचारों मे बदलाव कभी नही आता काल व परिस्थिति अवश्य बदलती है जो कार्य कल गलत था वह आज भी गलत है।भाषा अवश्य बदलती है इसका पुष्ट प्रमाण यह है की अनैतिक कर्म करने वाले व्यक्ति को जिस संज्ञा से हजारों वर्ष पूर्व पुकारा गया मनीषियों ने सम्बोधित किया आज हम भी तो वही कहते हैं।अच्छा को अच्छा और बुरा को बुरा कहने की प्रवृत्ति तो बहुत प्राचीन है दुष्ट प्रकृत्ति के व्यक्ति को हजारों वर्ष पहले बुरा कहा गया और आज हमभी वही कहते हैं तो विचारो मे परिवर्तन की बात सत्य नही अमरत्व की खोज करने वाले तब भी थे आज भी है सिर्फ माध्यम उन्नति चरणों के अनुसार बदल है साधन बदला हैं मस्तिष्क एवम् विचार नही क्योंकि मस्तिष्क वह प्रकृति प्रदत्त मशीन है जो आदि सृष्टि से आज तक एक ही प्रकार से बनती आयी है उसमे किसी प्रकार पुर्जों को घटाया-बढ़ाया नही गया और न ही ऐसा किया ज सकता है सकता अगर कम ज्यादा हुवा तो विकृति मानी जाती है।इस तरह उसमे से अच्छा बुरा परिणाम सोंचने की सामर्थ्य जो सदियों पहले थी आज भी वही है। इस तरह मस्तिष्क को ऐसा परिवेश दें जिससे उसमे बुरे विचारो को पनपने की जगह ही न रह पाये ऐसा तभी सम्भव है जब सुशासन की स्थापना हो और आपका शासक नेक,ईमानदर और धर्माचारी,सदाचारी,ब्रम्हचारी जैसे गुणों से युक्त हो तथा मनुष्य के मस्तिष्क मे उतपन्न भाव विचारों के कारणों को समझने व जानने वाला हो तो समाज संस्कारवान बन सकता है।अभिप्राय मस्तिष्क मे नैतिक सोच उत्तपन्न करने की शिक्षा की आवश्यकता है। इस तरह की शिक्षा पहले गुरु कुलों आश्रमों मे दि जाती थी जो सीमित था परन्तु आज वह विद्यालयों के रूप मे परिणित हो गया और असीमित है फिर भी हम अनैक्तिकता की ओर उन्मुख शांति की खोज मे लगे है जो अत्यंत कठिन अवश्य ही है।क्योकि आज की शिक्षा व्यक्तियों मे चारित्रिक विशेषताएं उतपन्न करने मे असफल है निष्ठा ईमानदारी के पाठ अवश्य पढ़ाये जाते है।परन्तु क्या उसपर स्वयं अध्यापक अमल करता है क्या वह आचरण की सभ्यता से युक्त है अथवा वह उसे ठीक से समझ पाता है ,और जब अध्यापक को ही पाठ उद्देश्य का ज्ञान स्पष्ट नही होगा ऐसी दशा मे क्या वह छात्रों को उचित मार्ग दर्शन कर सकेगा ?आज की शिक्षा मात्र उदर भरने का साधन मात्र है। भाषा मे बिभिन्न प्रकार के सूर कवि माघ विहारी तुलसी कबीर आदि के जो पाठ पढ़ाये जाते हैं क्या वह पाठ मात्र परीक्षा पास करने की दृष्टि से कण्ठस्थ करने के लिए ही होते हैं या जीवन मे अमल करने के लिए यह बात शायद अध्यापक पाठ पढ़ाते वक्त भूल जाता है की मुझे छात्रों मे इन महापुरुषों के आचरणों को भरना है और इसी तरह बनना है।।।