गीत
दोपहरी अलसाई सी है, सो सो जाती है ।
दाँव छाँव के देख धूप भी, नजर चुराती है ।।
चाँद सलोना, छत पर आकर देता है ताने ,
मैंने कैसे , मृग नैनी को दिया रात जाने ।
यह पीड़ा मन आँगन में दिन रात सताती है…..
दोपहरी……….।।
बोझिल कन्धे ,स्वप्न उठाये फिरते हैं मारे,
किन्तु भाग्य की, अनदेखी से ये सदैव हारे ।
नियति नटी भी दूर खड़ी होकर मुस्काती है….
दोपहरी………..।।
नहीं सूझते, राग सुरीले मन सैलानी को ।
नदी स्वयँ, पी गयी रात पोखर के पानी को ।
हृदय सिंधु की, धार अचानक उभरा आती है…..
दोपहरी……….।।
जीवन बेल, हरित है फिर भी रहती मुरझाई ।
हृदय सिंधु में, रहती सूखी स्वप्निल अमराई ।
धड़कन केवल काल चक्र का मन बहलाती है….
दोपहरी……….।।
— राहुल द्विवेदी ‘स्मित’
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