सामाजिक

लेख– निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति का मूल

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति का मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन, पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन । उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय, निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय । आज इन चंद पंक्तियों पर राजनीतिधारियों ने पानी डालकर तिलांजलि देने का काम किया है। बड़े-बड़े दिवास्वपन तो हिंदी की उन्नति के दिखाए जाते हैं, लेकिन जब मौका आता है, तो फ़िर नेताओं के हलक से ही बाहर हिंदी नहीं निकलती। उससे बड़ा राजनीतिक अंतर्विरोध तो तब ज़ाहिर होता है, जब भाषा को लेकर ही देश में राजनीतिक हित देखें जाने लगते हैं। वैसे विचार करें, तो पता चलता है, कि भाषा मानव सभ्यता में सबसे महती स्थान रखती है। भाषा विचारों के आदान-प्रदान की सशक्त माध्यम होती है। भाषा विचारों, चिंतन, आवश्यकताओं एवं भावों को शब्दों में परिवर्तित करने का साधन है जो एक सामाजिक जीवन जीने वाले व्यक्तियों के लिए आवश्यक है। भाषा के न होने का मतलब अस्तित्व को खतरे में डालना है। किसी भाषा का विकास दूरगामी और सतत प्रक्रिया है, जब जाके भाषा का शुद्ध, परिष्कृत और पारमर्जित स्वरूप खिलकर सामने आता है। हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनने की मांग देश में बलवती हो रही है, लेकिन उसके लिए आज के वक़्त में हिन्दी भाषा में कुछ बदलाव करने होंगे, तो उसके साथ बोलने और हिन्दी भाषा को प्रयोग करने वालों को भी। आज हिंदी को अगर राष्ट्र भाषा बनाना है, और उसकी पहचान विश्व पटल पर रखनी है, तो पहले उसकी कमजोरियों की तरफ़ झांककर देखना होगा। आखिर क्या कारण है, कि हिंदी भाषा रोजगार निर्माण का साधन नहीं बन पा रहीं। क्या कारण है, कि हिंदी विश्व फ़लक पर अभी तक वह उपस्थित नहीं दर्ज करा सकी, जो स्थिति आज अंग्रेजी और अन्य भाषाओं की है।

कारण स्पष्ट है, हिंदी को वह महत्व देश में ही नहीं मिला, जो मिलना चाहिए। फ़िर हिंदी कैसे उन्नति के शिखर पर पहुंच सकती है। आज बच्चा पैदा होते ही अंग्रेजी की खान में दबा दिया जाता है, फिर हिंदी विकास कैसे कर सकती है? अंग्रेजी का चहुँओर बुखार चढ़ गया है, जैसे बगैर हिंदी के बच्चों का विकास ही नहीं होगा। अगर ऐसी विचारधारा पनप चुकी है, फ़िर हिंदी का दायरा बढ़ने के बजाए सिमटेगा ही। आधुनिकता की चाहत और समाज के साथ चलने के लिए आज के अभिवावक अपने दुधमुंहे बच्चें को अंग्रेजी का ज्ञान पढ़ाने लगते हैं, तो हिंदी कहाँ उन्नति कर रही है? जो बच्चा जन्म के बाद जब बोलने की अवस्था में पहुँचता है, तो अब माँ नहीं, मॉम बोलता है। फ़िर हम ख़ुद तो ऐसी व्यवस्था को तैयार कर रहें हैं, जिसमें हिंदी का अस्तित्व सिमटता जा रहा है। तो ऐसे में हम हिंदी के नाम पर एक दिवसीय कार्यक्रम का आयोजन करके हिंदी के विकास के सारथी नहीं बन सकते। आज हमें उन कारणों को दूर करने की दिशा में सतत और निरन्तर कदम बढ़ाना होगा, जिसके कारण हिंदी की महत्ता कमजोर पड़ रही है। हिंदी से लोगों द्वारा दूरी बनाने का सबसे बड़ा कारण उसका क्लिष्ट स्वरूप और नवीनता का अभाव है। भाषा को बहता हुआ नीर कहते हैं, तो हिंदी को उस रूप में ढालना होगा, अंग्रेजी में एक शब्द से काम चल जाता है, हिंदी में उसके लिए चार-पांच शब्द बोलने पड़े, तो झुकाव तो कम होगा ही। आज अंग्रेजी रोजगार सृजन के रूप में उभर कर आई है, लेकिन हिंदी में ऐसा कोई विशेष व्यवस्था नहीं दिखती, इसलिए भी हिंदी कमजोर पड़ रही है। हिंदी के लिए आज देश के भीतर ही विषय-विशेषज्ञों की कमी झेल रहा है, फिर कैसी उन्नति हो रही है? यह बात समझना होगा?

 

हिंदी को बढ़ावा देने का काम भी हो रहा है, लेकिन व्यापक स्तर पर नहीं। उसमें बदलाव लाना होगा। हिंदी आज अपने टूटे-फूटे स्वरूप को लेकर आगे बढ़ने को चाह रही है, तो अशुद्ध रूप में उसका विकास तो हो नहीं सकता।आंकड़ों के मुताबिक देश में लगभग 65 करोड़ लोग हिन्दी भाषी हैं । इसके साथ विश्वभर में 6 करोड़ से अधिक लोग हिंदी जानते हैं। आज इलैक्ट्रॉनिक चैनलों, समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में हिन्दी का दबदबा साफ नजर आता है। एक आंकड़े के मुताबिक जुलाई 2016 से दिसम्बर 2016 तक हिन्दी के समाचार पत्र-पत्रिकाओं की प्रसार संख्या औसतन प्रतिदिन 2,54,17,748 थी जबकि अंग्रेजी की प्रसार संख्या 1,16,84,688 थी। इसके बाद हिन्दी की अनेक पत्र-पत्रिकाओं की शुरुआत हुई है और निस्संदेह इसका प्रचार- प्रसार बढ़ा है। डिजीटलीकरण के युग में अनेक वेब पोर्टल भी हिन्दी के प्रचार -प्रसार में अहम भूमिका निभा रहे हैं। तो ऐसे में हिंदी का महत्व बढ़ रहा है, लेकिन जो अशुद्धियों का जमावडा सबसे तेज के चक्कर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया करती है, उससे हिंदी की मूल भावना प्रभावित होती है। इसके अलावा हिंदी को सबसे ज़्यादा क्षति हिंदी और अंग्रेजी भाषा के सम्मलित अवस्था यानी हिंग्लिश ने पहुँचाई है। जिसने हिंदी शब्दकोश को विकृत करने का काम किया है। जिस कारण यह रवायत जल्द ही बंद होनी चाहिए। आज के दौर में भारत के अलावा विश्व भर के 40 से अधिक देशों के विद्यालयों औऱ शिक्षण- संस्थानों में हिन्दी पढ़ाई और सिखाई जाती है। तो हिंदी ऐसा नही बढ़ नही रही, लेकिन शैने-शैने, इस गति को ओर बढ़ाना होगा।

सन 1918 में महात्मा गांधी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन में हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने का सुझाव दिया था, लेकिन यह देश का दुर्भाग्य है, कि राजनीतिक कलुषता के कारण हिंदी आज भी राजभाषा के रूप में ही बंधी हुई है। हमारे देश का दुर्भाग्य यह भी है, कि यहां हर मुद्दे पर राजनीति होती है, तो हिंदी और राष्ट्र भाषा भी राजनीति के दुष्चक्र में पीस गई। ऐसा भी नहीं है, कि हिंदी का क्षेत्र एकदम संकुचित हो चला हो। हिंदी की पहुँच सरकारी कामकाज के साथ प्राइवेट क्षेत्रों में भी फैल रहा है। देश-विदेश की बड़ी-बड़ी कंपनियों ने आज हिंदी को लेकर अनेकों सॉफ्टवेयर लॉन्च किए हैं, जिन्हें प्रयोग करने वाले लोगों की संख्या करोड़ों में हैं। इसके साथ गूगल तक हिंदी पहुँच चुकी है, लेकिन दुर्भाग्य तो यही है, कि हिंदी शब्दकोश में सुधार की जगह खिलवाड़ चल रहा है। वह बन्द होना चाहिए। आज मोबाइल और इंटरनेट के युग में लोगों को अंग्रेजी की अपेक्षा हिन्दी में काम करना सुलभ लग रहा है। पिछले दिनों जिस तरह कर्नाटक में हिंदी को लेकर विरोधी सुर दिखा, फ़िर कैसे कहा जाए, कि हिंदी आने वाले दिनों में विश्व भाषा का नेतृत्व कर सकती है। यह परिपाटी किसी एक राज्य की नही, राजनीति से प्रेरित सभी अहिंदी भाषी राज्यों की है। इसके अलावा अब तो हिंदी भाषी राज्यों में भी क्षेत्रीय बोली को भी स्वतंत्र करने की लहर चल पड़ी है। जो क्षेत्रीय बोलियां हिंदी को समृद्ध करती है, उनको अलग करने की साजिश हो रही है। हिंदी को मजबूत बनाने के लिए हिंदी को जनमानस के दैनिक जीवन में सम्मिलित करना होगा। हिंदी में व्याप्त विसंगतियों को दूर करना होगा। युवाओं में यह अलख जागनी होगी, कि हिंदी भी उनका भला कर सकती है, तभी हिंदी समृद्ध और सशक्त बन सकती है, क्योंकि किसी ने सही कहा है, कि,
— भाषा मानव सभ्यता का अभिन्न अंग है और राष्ट्र को एक पहचान देती है। राष्ट्रभाषा राजनैतिक, आर्थिक एवं  सामाजिक दृष्टि से राष्ट्र को सुदृढ़ बनाती है और उसकी एकता एवं अखण्डता को अक्षुण्य रखने में सहायता करती है। तो हिंदी हमारी पहचान है, उसे अक्षुण्य बनाए रखना हमारे कर्तव्यों में होना चाहिए।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896