गज़ल
कहीं पे बचपना कहीं पे जवानी कम है,
यहां चालबाजी है ज्यादा शैतानी कम है
अब नहीं होती हैं लोगों से गलतियां इतनी,
इस अक्लमंदी के दौर में नादानी कम है
दर्द के सहरा में हर शख्स गुम हुआ जैसे,
मुस्कान लब पे और आँख में पानी कम है
दिल तोड़ने वालों से इल्तिजा है मेरी,
कुछ और दीजिए इतनी सी निशानी कम है
सबसे तो मिलते हो महफिल में गर्मजोशी से,
हमीं पे क्यों फिर आपकी मेहरबानी कम है
ना डूबता है सफीना, ना पार लगता है,
दरिया-ए-इश्क में मौजों की रवानी कम है
— भरत मल्होत्रा