ग़ज़ल
सूरत नहीं स्वभाव, देख,
शहर नहीं तू गांव, देख!
ठाठ-बाट महलों के देखे,
झोपडी के अभाव, देख!
जीवन ढोता रहेगा कब तक,
अपने मन का चाव, देख!
दिखावा नहीं तू ऱिश्तों में,
दिल से दिल का लगाव, देख!
खरीदना इसे आसान नहीं
सांसों का पहले भाव, देख!
‘जय’ तु अपने शब्दों में बस,
संस्कारों का प्रभाव, देख!
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’