विकलांगों के आदर्श श्री बच्चू सिंह (भाग ५)
स्वतन्त्रता के समय एक आंतकवादी संगठन “मजगर” ने पंजाब और सिंध के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में आंतक फैला दिया, यह उनसे जुड़े हिन्दू क्षेत्रों में भी फैल गया। हिन्दू बहुल रियासतों ने अपनी प्रजा को बचाने के लिए केंद्र से सहायता मांगी, मगर नेहरू ने कोई चिंता नहीं की, जिससे अव्यवस्था हो गई।
माउण्टबेटन ने भारत विभाजन का काम सिरिल रेडक्लिफ को सौंपा था जो भारत के विषय से पूर्णत: अनभिज्ञ था; रेडक्लिफ ने केवल भारत का नक्शा देखकर कुछ पूछताछ के बाद पूर्व और पश्चिम में दो लाइनें खींचकर भारत को विभाजित कर दिया जो बहुत अव्यवस्थित भी था, जैसे बंगाल का 100% हिन्दू-बौद्ध क्षेत्र चटगांव पाकिस्तान को दिया गया, और मुस्लिम बहुल मालदा भारत को मिला।
पंजाब में लाहौर हिन्दू-सिख बहुल क्षेत्र था, जहां लाला लाजपत राय और सर छोटू राम के समर्थक थे, जिससे बच्चूसिंह को सीधा समर्थन मिल रहा था; 1946 क्रांति के समय से लाहौर पर ब्रिटिश प्रशासन की पकड़ खत्म हो गई थी, इसलिए लाहौर पर नियंत्रण केवल मुस्लिम पुलिस अधिकारियों को दिया गया था। इसी आधार पर लाहौर को ज़बरदस्ती पाकिस्तान में मिलवाया गया। इसी से कश्मीर जाने वाला मार्ग पाकिस्तान को मिला।
रियासतों को ब्रिटिश संसद ने स्वेच्छा का विकल्प दिया था, परंतु मजगर आंतकवाद से सिंध के पूर्वी क्षेत्र में स्थित रियासतों में संकट हो गया। नेहरू ने उनकी मदद करने में कोई रुचि नहीं दिखाई; अत: रियासतें स्वतंत्र हो गईं, किन्तु साथ ही आंतकवाद से पीड़ित भी हो गईं। इस समय जिन्नाह ने पाकिस्तान सीमा से सटी हिन्दू रियासतों को मदद के बदले पाकिस्तान में मिलने का न्यौता दे दिया। इसी कारण अमरकोट जैसी 80% हिन्दू बहुल रियासत भी पाकिस्तान में शामिल हुई। इसी से सरक्रीक तक पाकिस्तान का कब्जा हो गया।
जोधपुर, बीकानेर आदि बड़ी रियासतों के साथ भी जिन्नाह ने समझौता कर लिया; इस समय भरतपुर के पास भी दो ही मार्ग थे – या तो पाकिस्तान में मिलकर शांति से जागीर या कुछ अधिकार ले लेना, या फिर लड़कर ज़बरदस्ती भारत के साथ मिलना। भरतपुर ने दूसरे मार्ग को अपनाया।
बच्चुसिंह ने अपनी जीप में हथियार लादे और भरतपुर की सेना के साथ मजगर आंतकवादियों पर हमला कर दिया। जहां भी आंतकवादी उत्पात करते, बच्चूसिंह अपनी सेना सहित वहाँ पहुँच जाते और उनका सफाया करते। नेहरू द्वारा आंतकवाद पर अपनी उपेक्षा करने से आत्मरक्षा के लिए अलवर, धौलपुर, व करौली रियासतें भी भरतपुर के साथ जुड़ गई; इसी के साथ इनका प्रभाव बढ़ने लगा।
विभाजन, दंगे और आंतकवाद से पीड़ित लोगों के पुनर्वास, राहत, भोजन-पानी, दवा व चिकित्सा के लिए प्रबंध भी आवश्यक था; लेकिन इसका नेहरू ने विरोध ही किया। तब सीकर रियासत के जाट महाराजा कल्याण सिंह की शरण में रह चुके पंडित दीन दयाल उपाध्याय इसके लिए आगे आए। 1937 से आरएसएस से जुड़े पंडित दीन दयाल उपाध्याय उस समय आरएसएस के उत्तरी प्रांत के सह-प्रांत प्रचारक थे; अत: उनके साथ अन्य बहुत से आरएसएस कार्यकर्ता भी इस काम में जुड़ गए।
दीन दयाल उपाध्याय और बच्चूसिंह में बहुत समानताएं थीं। दोनों ही एकीकृत भारत में जरूरतमंदों के संरक्षण के पक्षधर थे; और दोनों को ही नेहरू का विरोध था। दोनों प्रखर देशभक्त तो थे ही। अत: दोनों हर मोड़ पर एक होते गए।
बच्चूसिंह भरतपुर की सेना के साथ अपने आर्यसमाज और अजगर स्वयंसेवकों को प्रशिक्षण दिया करते थे। यह प्रशिक्षण अलवर में भी होने लगा था। दीन दयाल उपाध्याय के साथ जुड़े आरएसएस के सदस्यों को भी मई-जून 1947 में अलवर के प्रधानमंत्री खरे ने प्रशिक्षण में जोड़ दिया। प्रशिक्षण के दौरान बच्चूसिंह की टीम से जुड़कर आरएसएस पूरे भारत का सबसे बड़ा संगठन बन गया; किन्तु व्यवस्थित रूप से यह बच्चूसिंह की टीम थी।
(जारी…)
— विजय कुमार सिंघल
आदरणीय भाईसाहब ! बच्चू सिंह जी की कथा इस कड़ी में भी बहुत अच्छी लगी । आर एस एस से इतना अच्छा समन्वय होने के बावजूद आज इस संगठन में उनको इतना सम्मान न मिलना निराश करता है । बेहद सुंदर कड़ी के लिए धन्यवाद ।
आपका कहना सत्य है भाई साहब ! यह बात नहीं है की संघ में उनको महत्त्व जानबूझकर नहीं दिया जाता. वास्तव में जानकारी का आभाव ही इसका कारण है. बच्चू सिंह जी और दीन दयाल उपाध्याय जी दोनों को ही साथ कार्य करने का अधिक समय नहीं मिला. दोनों लगभग एक साथ ही षड्यंत्रों के शिकार हो गए, इसलिए उनको इतिहास ने भुला दिया. अब इस इतिहास को सामने लाया जा रहा है.
सार्थक टिप्पणी के लिए आपको धन्यवाद !