गज़ल
इस दौर-ए-तग़य्युर में ऐसा भी मुकाम आया,
जिन हाथों में तस्बीह थी उन हाथों में जाम आया
उन्हें राह पे लाने की ज़ाया हुई हर कोशिश,
तीशा भी ना काम आया शीशा भी ना काम आया
हमने तो मुहब्बत को माना है खुदा अपना,
सर झुक गया सजदे में जब भी तेरा नाम आया
राह तकते हुए जिनकी पथरा गईं मेरी आँखें,
ना खुद वो कभी आए ना उनका पैगाम आया
मैं समझ ना पाया है इंसाफ तेरा कैसा,
हिस्से में वफा के बेवफाई का इनाम आया
— भरत मल्होत्रा