“चलना कभी न वक्र”
बचा हुआ जो नेह है, उसको रहा सहेज।
बुझने से पहले दिया, जलता कितना तेज।।
क्या जायेगा साथ में, करलो जरा विचार।
आने-जाने के लिए, खुले हुए हैं द्वार।।
जब हो जाता नीड़ का, जीर्ण-शीर्ण आकार।
हंस नहीं करता कभी, तब उसको स्वीकार।।
माटी जैसी हो वही, वैसा रचे कुम्हार।
कर देता है नियन्ता, नया पात्र तैयार।।
जीते जी ही जगत में, रहता हा हा कार।
मर जाने के बाद में, बचता लोकाचार।।
सोच-समझकर कीजिए, लोगों से संवाद।
दुनिया में इंसान की, नेकी आती याद।।
रुकता-थकता है नहीं, कभी काल का चक्र।
सीधी-सच्ची राह पर, चलना कभी न वक्र।।
—
(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)