मधुगीति : होते हुए भी हैं कहाँ !
होते हुए भी हैं कहाँ, हम जहान में रहते कहाँ;
देही यहाँ आत्मा वहाँ, बस विचरते यों हीं यहाँ !
संस्कार लगभग मिट गये, रिश्ते यहाँ के निभ गये;
आकार बस हैं आँख में, उर निराकारी हो गये !
छाया सरिस सब लग रहा, माया का मंजर लख रहा;
मन तरंगित अब ना रहा, है अँग उसके लग रहा !
कोई कहाँ अपना रहा, सपने में सब उलझा रहा;
जग जगमगाता जो रहा, वो उसी का तारा रहा!
तरकीब कोई जाना ना, तरतीब था पाया कहाँ;
‘मधु’ तरन्नुम में मोह कर, जीवन का रस पाया कहाँ !
— गोपाल बघेल ‘मधु’