लघुकथा – अकेली औरत
धनदेबी क्षोभ की प्रतिमा बनी एक औरत पेड़ के नीचे लाठी पकड़ी चुपचाप बैठी थी| अनजान दो आंखे उसे कुछ दूरी पर खडी उसे देख रही थी | वो अजनबी को अपने निकट आते देख कर भी वो औरत धनवंती में न तो कोई उत्सुसकता थी और न ही परेशानी का भाव था| उसके मुंह पर उदास रेखाएं खींच गयी थी, उसने श्बेत कपडोँ से अपना पूरा शरीर ढ़ंक रखा था और शायद रात भर जाग कर रोने से उसके आंखों की पलकें बोझिल सी लग रहे थी | सुवह की चमक में साथ वाले घर का पड़ोसी सहानुभूति दिखाते हुए उस औरत से पूछा कि, “आप रोहन की माता हो ?” उसने भावशून्यो उदासीनता से कहा कि “हाँ !,गावँ से आई हूँ , मेरा पति नही रहा,अब अकेले समय नही बीतता ,बेटा रोहन दूर के रिश्तेदार के पास आई हूँ | मैं अभागिन उन्हेंो आखरी समय में सही ईलाज भी ना करा सकी| मैं ही उनकी मौत की जिम्मेसवार हॅूं अगर मैं उस दिन ‘ पैसे की तंगी की वजह मैने मरने की बात’ नहीं कही होती तो शायद मेरे पति नहीं मरते, वो कैसर बीमारी के कारण नहीं मरे, मेरे कारण मरे| मुझे बीमार से ऐसा नहीं कहना चाहिए था ? “
यह कहकर वो चुप हो गयी और उसके चुप होते ही निस्तनब्धाे जैसे गहरी बढ़ गयी थी| ऐसा प्रतीत हो रहा था कि बरगद की लटकतिया शिराएँ, चुपचाप टहनियों का घनापन, आसपास का खालीपन सब उस गमगीन औरत के दुख-दर्द में शामिल हों| पड़ोसी अजनवी अनायास ही उसके गम, मौत का इन सब के साथ संबंध के बारे में सोचते बोला ,”हौसला रखो !” नया सूरज इस बेरहम हुई मन की तपिश को हटा नई दिशा देगा |”
उस औरत को सांत्वना में अपनेपन का अहसास दिला जाने लगा | वो औरत पड़ोसी से बोली कि “तुमने मेरी दुखभरी दास्तां सुन,मुझमे जीवन में लड़ने का साहस सा भरा हैं | यही बहुत है, मन का बोझ हल्कान हो गया, मुझे तो इंसानियत में सब अपने लगते है, मैं अकेली हॅूं, इस दुनिया में अब अकेली नही हूँ |” मानो कोई ताकत उसे हिम्मत जुटा वेटा बना बुला रही हैं | रेखा मोहन २४ /९/२०१७
अच्छी लघुकथा !