बाँध-संस्कृति
“बंधवा पर महवीर विराजै” बचपन में जब इसे सुना था तब तक बांध से परिचित भी नहीं हो पाया था! इसी दौरान उपमन्यु वाली कहानी जरूर पढ़ी थी और जाना था कि, छोटी सी कोई “बंधी” पानी रोकने के भी काम आती है और ऐसी बंधियों की कितनी जरूरत होती है इसका अहसास उपमन्यु की कथा पढ़कर हो गया था! वाकई! तब ये छोटी-छोटी बंधियाँ एकदम समाजवाद टाइप की होती होंगी।
इसके बाद उस “महवीर” वाले “बँधवा” से परिचित हुआ था! वो क्या कि मैंने सुना था, सन अठहत्तर के बाढ़ में इलाहाबाद में गंगा के बढ़ते जलस्तर को देखकर किसी बड़े इंजिनियर ने इलाहाबाद के डी एम साहब को उसी बाँधवा को काटने का सलाह दिया था कि, इससे बाढ़ का पानी फैल जाएगा और जलस्तर घट जाएगा.. लेकिन डी एम साहब ने यह कहते हुए मना कर दिया था कि “भइ, अगर बाढ़ के कारण बाँध को कटना ही है तो वह वैसे भी कट जाएगा..इसे काटने की जरूरत नहीं..” खैर, इसके बाद गंगा का जलस्तर घटना शुरू हो गया था और “बँधवा” कटने से बच गया था..! मतलब ऐसे होते हैं हमारे बड़े-बड़े इंजीनियर और इनकी सलाह!! इसी तरह की सलाहों से बड़े-बड़े बाँध बनाए जाते होंगे।
हाँ, अब तक तो अच्छी तरह से बाँधों से परिचित हो चुका हूँ..इनमें रुके पानी से अपन गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत से ऊँचाई से टारबाइन पर गिरते पानी से बिजली बनते हुए जाना है। गुरुत्वाकर्षण-बल ही वह कारण है जिससे कोई भी ऊपर की चीज नीचे चली आती है। यह सहज गति है, प्राकृतिक गति है। हमारी जनता-जनार्दन प्रत्येक पाँच वर्ष बाद कुछ लोगों को पलायन-वेग की गति से ऊपर प्रक्षेपित कर देती है। ये नीचे से ऊपर स्थापित हुए लोग गुरुत्व-बल के विरोधी बन जाते हैं और चीजों पर लगने वाला गुरुत्वाकर्षण-बल धरा का धरा रह जाता है। यही ऊपर पहुँचे हुए लोग नीचे वालों के लिए बड़े-बड़े बाँध बनाते हैं और उसमें फाटक भी लगाए होते हैं तथा चीजों को नीचे आने के लिए अपने मनमाफिक ढंग से फाटक को खोलते और बंद करते हैं..! तदनुसार ही नीचे वाले हरा-भरा और सुखी होते रहते हैं। मतलब, अगर आप को भी बाँध से परिचित होना है तो गुरुत्वाकर्षण के विरोधी बनिए और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में घुसकर देखिए, नीचे से पलायित होइए…पता चल जाएगा!!
इधर अपन भी बाँधों के आसपास घूमकर जायजा ले चुके हैं.. वह क्या कि इन बाँधों के आसपास खूब हरियाली रहती है…इस हरियाली को देखकर मेरा भी मन “लकदक” हो जाता है! मेरा मानना है कि बाँध से दूर वाले इस सब्जबाग को देखकर अपना भी मन लकदक कर लेते होंगे, तभी तो अपने देश में “बाँध-संस्कृति” चल पड़ी है! यह “बाँध” बनाना इसलिए भी जरूरी है कि, इस पृथ्वी पर जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी है, वैसे-वैसे पूंजीवाद भी बढ़ता गया है और छीनाझपटी शुरू हो गई, परिणामस्वरूप अब “मेड़बंधी” से काम चलने वाला नहीं है। इस पूँजीवादी जमाने में मेड़बंधी तो समाजवादी प्रवृत्ति है, इसका त्याग कर बड़े बाँध वाली संस्कृति अपनाना अब अपरिहार्य हो चुका है।
ये बड़े बाँध हमें प्रतिकूल परिस्थिति में सुरक्षा का वैसे ही भरोसा देते हैं जैसे कि, जनता से अर्जित ताकत के बल पर ऊपर जाता गुरुत्व-बल का विरोधी कोई नेता नीचे वालों को आश्वासन देता है! इस बाँध-संस्कृति ने जनसंख्या-वृद्धि और समाजवाद के आपस के व्युत्क्रमानुपाती संबंध का खूब फायदा उठाया, जिसमें आदमी का विस्थापन होता है। तो, यहाँ हर व्यक्ति दूसरे को विस्थापित कर अपने लिए बाँध बनाकर उस पर फाटक लगाए बैठा है!