गीतिका/ग़ज़ल

तरही ग़ज़ल

पराया हो के , अपनापन बहुत है …..
मेरे ग़म में उसे , उलझन बहुत है …..
कहाँ जाने गये , दिल के परिंदे …..
दिले – बेज़ार में , धड़कन बहुत है …..
मची है खलबली , दिल के पटल पर …..
नज़र में आज भी , भटकन बहुत है …..
सिवा तेरे , बताऊँ किसे मैं …..
जिगर में दर्द है , तड़पन बहुत है …..
कली दिल की , मिरे मुरझा रही है …..
बरसता क्यों नहीं , सावन बहुत है …..
कभी सोचा नहीं , क्या हमसफ़र यह …..
अकेली जीस्त में  , कलपन बहुत है …..
ख़ाक छाने नहीं हम , अब यहाँ – वहाँ …..
ग़म खा के जीने में, अड़चन नहीं है …..
समाया है मिरे , क़ल्ब – ओ – जिगर में …..
तेरे लहज़े में , मीठापन बहुत है …..
‘ रश्मि ‘ कैसे कटे , यह ज़िंदगानी …..
उदासी हर तरफ़ , तुझ बिन बहुत है …..
— रवि रश्मि ‘अनुभूति ‘