यही है जिंदगी
त्याग ,प्यार ,स्नेह ,परहित की भावना ।
निश्छल प्रेम की है अद्रश्य याचना ।
थक जाते हैं कदम भी अनजानी दौड़ में ,
कहाँ है पवित्र प्रेम की सहज सी उपासना ।
तन्हाई पीड़ा अवसाद है आज की प्रवंचना
मात्र दैहिक ही तो है प्यार की अवचेतना ।।
तेज पानी का प्रवाह भी दे जाता है किनारा
पत्थरों को आ ही जाता है खुद के लिए लड़ना ।
चलते चलते कभी थक जाते हैं कदम भी
व्यर्थ है उम्मीद की लौ तेज हवाओं से लगाना ।
अकेला चलना ही तो यथार्थ है ऐ मेरे दिल
भूल जा इच्छाएं अनन्त हैं अंत है सिर्फ उलाहना ।
दर्द को सहेजकर चल उठ जा मुसाफिर
चलना ही है मंजिल तेरी रुकना है सिर्फ हारना ।
रुकना है सिर्फ हारना ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़