त्योहार और बाजार
कहते हैं बाजार में वो ताकत हैं जिसकी दूरदर्शी आंखे हर अवसर को भुना कर मोटा मुनाफा कमाने में सक्षम हैं। महंगे प्राइवेट स्कूल, क्रिकेट , शीतल पेयजल व मॉल से लेकर फ्लैट संस्कृति तक इसी बाजार की उपज है। बाजार ने इनकी उपयोगिता व संभावनाओं को बहुत पहले पहचान लिया और नियोजित तरीके से इस क्षेत्र में आहिस्ता – आहिस्ता अपना आधिपत्य स्थापित भी कर ही लिया। कई साल पहले जब बोतल बंद पानी का दौर शुरू हुआ तो मन में सहज ही सवाल उठता … क्या जमाना आ गया है, अब बोतलों में पानी बिकने लगा है। लेकिन आज हम सफर के लिए ट्रेन पकड़ने से पहले ही बोतलबंद पानी खरीद कर बैग में रख लेते हैं। कई दशक पहले ही बाजार ने त्योहार को भी अवसर के रूप में भुनाना शुरू कर दिया। त्योहार यानी बड़ा बाजार। पहले जेबें खाली होते हुए भी त्योहार मन को असीम खुशी देते थे।
त्योहार के दौरान दुनिया बदली – बदली सी नजर आती थी। लेकिन दुनियावी चिंताओं के फेर में धीरे – धीरे मन में त्योहारों के प्रति अजीब सी उदासीनता घर करने लगी। मन में सवाल उठता… यह तो चार दिनों की चांदनी है…। जब दिल में खुशी है ही नहीं तो दिखावे के लिए खुश दिखने का मतलब। फिर त्योहारों में भी अजीब विरोधाभासी तस्वीरें नजर आने लगती। त्योहार यानी एक वर्ग के लिए मोटे वेतन के साथ अग्रिम और बोनस के तौर पर मोटी रकम के प्रबंध के साथ लंबी छुट्टियां की सौगात। फिर पर्यटन केंद्रों में क्यों न उमड़े भीड़। सामान्य दिनों में पांच सौ रुपयों में मिलने वाले कमरों का किराया पांच गुना तक क्यों न बढ़े। आखिर इस वर्ग पर क्या फर्क पड़ता है। लंबी छुट्टियां बीता कर दफ्तर पहुंचेंगे और महीना बीतते ही फिर मोटी तनख्वाह एकाउंट में जमा हो जाएगी। फिर सोचता हूं ठीक ही तो है। ये खर्च करते हैं तो उसका बंटवारा समाज में ही तो होता है। किसी न किसी को इसका लाभ तो मिलता है।
बीच में त्योहार की चकाचौंध से खुद को बिल्कुल दूर कर लिया था क्योंकि त्योहार की धमाचौकड़ी के बीच बेलून बेच रहे बच्चों की कुछ आमदनी हो जाने की उम्मीद में चमकती आंखें और सवारियां ढूंढ रही रिक्शा चालकों की सजग – चौकस निगाहें मन में अवसाद पैदा करने लगी थी। कोफ्त होती कि यह भी कैसी खुशी है। एक वर्ग खुशी से बल्लियों उछल रहा है तो दूसरा कुछ अतिरिक्त कमाई की उम्मीद में बेचैन है। क्या पता उसे इच्छित आमदनी न हो। तब क्या बीतेगा उन पर। विजयादशमी के हुल्लड़ में मैने अनेक चिंतित और हैरान – परेशान दुकानदार देखे हैं। जो पूछते ही कहने लगते हैं… क्या बताएं भाई साहब, इस साल आमदनी नहीं हुई, उल्टे नुकसान हो गया … ढेर सारा माल बच गया। हिसाब करेंगे तो पता चलेगा कितने का दंड लगा है। समझ में नहीं आता… अब बचे माल का करेंगे क्या। इस भीषण चिंता की लकीरें बेचारों के परिजनों के चेहरों पर भी स्पष्ट दिखाई पड़ती है। सचमुच त्योहारों ने संवेदनशील लोगों के दिलों को भारी टीस पहुंचाना शुरू कर दिया है।
इस साल विजयादशमी से करीब एक पखवाड़े पहले मेरे छोटे से शहर में चार बड़े शॉपिंग मॉल खुल गए हैं। जिसमें हर समय भारी भीड़ नजर आती है। माल के कांच के दरवाजे ठेल कर निकलने वाले हर शख्स के हाथ में रंगीन पैकेट होता है जो उनके कुछ न कुछ खरीदारी का सबूत देता है। लोग खरीदें भी क्यों नहीं…। आखिर ब्रांडेड चीजें भारी छूट के साथ मिल रही है। साथ में कूपन और उपहार भी। लेकिन फिर सोचता हूं इसके चलते शहर के उन चार हजार दुकानदारों की दुनिया पर क्या बीत रही होगी जहां इस चकाचौंध के चलते मुर्दनी छाई हुई है। सचमुच यह विचित्र विरोधाभास है। हर साल हम नए मॉल खुले देखते हैं वहीं पहले खुले मॉल बंद भी होते रहते हैं। रोजगार से वंचित इनमें कार्य करने वाले बताते हैं कि मालिकों ने बताया कि भारी घाटे के चलते मॉल को बंद करना पड़ा या फिर बैंकों के लोन का कुछ लफड़ा था। फिर मस्तिष्क में दौड़ने लगता खंडहर में तब्दील होते जा रहे बंद पड़े वे तमाम मॉल जो कभी ऐसे ही गुलजार रहा करते थे। फिर सोच में पड़ जाता हूं आखिर यह कैसा खेल है। दुनिया में आने – जाने वालों की तरह इस बाजार में रोज नया आता है तो पुराना रुख्सत हो जाता है।
— तारकेश कुमार ओझा