गीतिका/ग़ज़लपद्य साहित्य

शहर की हालत

कोई   हंसती   हुई   सूरत   नहीं   देखी  जाती
अब तो इस शहर की हालत नहीं  देखी जाती

रश्क करते  हैं  सभी  मेरी  लिखी ग़ज़लों पर
उनसे  ज़ख़्मों  की  इबारत  नहीं  देखी जाती

दिल  में जलता  है पर हंस के गले मिलता है
ऐसे  कमज़र्फ  की  फितरत नहीं  देखी जाती

दिल  के  बदले  में  सर  पेश  किया  जाता है
इश्क़   के  सौदे  में क़ीमत  नहीं  देखी  जाती

टूट  जाने की  मगर फिर भी दिल लगाने की
दिलए खुशफ़हम की आदत नहीं देखी जाती

आह  भरते  हैं  कभी  दिल  पे  हाथ रखते  हैं
शोख  नज़रों  की  शरारत  नहीं  देखी  जाती

अंकित शर्मा 'अज़ीज़'

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3 thoughts on “शहर की हालत

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी ग़ज़ल !

  • राजकुमार कांदु

    बहुत खूब !

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