आज की आधुनिक नारी
सुबह से शाम तक सब पर बड़े एहसान करती है
हमेशा अपने मायके का स्वयं गुणगान करती है
बड़ी अच्छी मेरी बहने बड़े प्यारे मेरे भाई
मेरा घर खूब था जब तक न आई थी ये भौजाई
ये जब से आ गई घर मे बहुत हलकान करती हैं
हमेशा अपने मायके का बड़ा गुणगान करती है
बिगड़ जाये अगर रिश्ता बनाना मुझको आता है
इधर का हो उधर का हो निभाना मुझको आता है
नज़र मे खुद की हर रिश्ते का पूरा मान करती है
हमेशा अपने मायके का स्वयम गुणगान करती है
कमाते हो अगरचे तुम तो मै भी तो कमाती हूँ
अगर तुम जाते हो दफ्तर तो मैं भी रोज़ जाती हूँ
ये नारी आज की जारी यही फरमान करती है
हमेशा अपने मायके का स्वयम गुणगान करती है
मेरा खाना बहुत सात्विक न आये जायके वाले
अगर आना है है बस आये मेरे ही मायके वाले
वो अपनी मुठ्ठियों मैं बंद हर तूफ़ान करती है
हमेशा अपने मायके का स्वयम गुणगान करती है
— मनोज श्रीवास्तव
(हास्य व्यंग संकलन बिन गुलाल के लाल से)