“उलझे हुए सवालों में”
उग आये शैवाल गाँव के तालों में
पेंच फँसें हैं उलझे हुए सवालों में
करूँ समर्पित कैसे गंगा जल को अब
नकली सूरज हँसता खूब उजालों में
गोशालाएँ सिसक-सिसक दम तोड़ रहीं
भरा हुआ है दोष हमारे ग्वालों में
दूध-दही, गेहूँ-चावल में जहर भरा
स्वाद कहाँ से लायें आज निवालों में
लोकतन्त्र का ‘रूप’ घिनौना है अब तो
लिप्त हुआ जनसेवक कुटिल कुचालों में
—
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)