ग़ज़ल
हसीं शाम को इब्तिदा दीजिए,
नया कोई नगमा सुना दीजिए
मरमरी हाथ सीने पे रखकर ज़रा,
दिल को धड़कना सिखा दीजिए
आपके हाथ में दे दी ये ज़िंदगी,
बना दीजिए या मिटा दीजिए
लब हिलाए बिना बात होती रहे,
वो तरीका हमें भी सिखा दीजिए
शब-ए-हिज्र लंबी है कैसे कटे,
चिराग-ए-मुहब्बत जला दीजिए
किसे है खबर हैं कहां मंजिलें,
मुसाफिर को हंस के विदा दीजिए
नहीं मेरे मरने का गम ना सही,
मजलिसी अश्क थोड़े बहा दीजिए
मैं हूँ आज भी मुंतज़िर-ए-करम,
कुछ भी ना दे सकें तो दुआ दीजिए
— भरत मल्होत्रा