खूँटा और विकास
मेरी समस्या बड़ी अजीब है! वह यह कि विकास कराने और इसकी देखभाल करने वालों के हत्थे चढ़ चुके विकास को क्या कहूँ? मेरे लिए विकास अदृश्य टाइप की चीज नहीं है। कुछ लोग विकास को दुधारू गाय की तरह मानते हैं, ऐसा मैंने लोगों को कहते सुना है और इसी बात पर मुझे अपने बचपन की एक बात याद आती है।
बात मेरे बचपन की है, तब विकास-उकास से मैं नासमझ था, अपने गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाना शुरू ही किया था। उन दिनों मेरे घर में एक गाय हुआ करती थी और शायद गौसेवा के नाम पर वह खूँटे से बँधी रहती थी। कभी कभार जब वह खूँटा तुड़ाकर स्वतंत्र विचरण करना चाहती, तो मेरे बाबा दौड़ाकर उसे पकड़ते और खूँटे से बाँधने के बाद अपने सोंटे से उसकी खूब धुनाई करते। छटांक भर दूध देने वाली वह गाय, ऊपर से दूध दुहते समय लात भी चला देती थी। इस पर भी उसकी धुनाई होती और उस पर पड़ते प्रत्येक सोंटे के वार के साथ बाबा के मुँह से “ही-है” का ठेक निकलता। खैर, उस गाय का दुधारू न होना भी उसमें एक खोट था। तब ज्यादातर देशी गायें इसी तरह की होती थीं, यह तो अब जाकर विदेशी नस्ल का प्रचार हुआ है और इन विदेशी नस्ल की गायों को पिटते हुए मैंने कभी नहीं देखा है।
वैसे तो, आजकल देशी गायों की नस्ल-सुधार का जमाना है और अब बाल्टी भर-भर कर दूध दुहा जाने लगा है। दूध देती इन गायों का स्वयं दूध पिया जाता है और मार्केट में भी बेंचा जाता है और विकास का भरपूर एहसास किया जाता है! जो ऐसा नहीं कर पाते उनकी नजरों से विकास ओझल टाइप का होता है। हम अपने शुद्ध देशी टाइप के विकास को, शुद्ध देशी गाय की तरह अब या तो उसे गो-रक्षा दल के हवाले कर धर्मानुभूति करते हैं या फिर इसे बहेतू या अन्ना पशु की तरह लावारिस विचरण करने के लिए छोड़ देते हैं।
कुल मिलाकर अब अपने देश की आबोहवा बदल चुकी है विकास का मतलब व्यापार, जिससे नोट और वोट दोनों मिलते हों। इसीलिए विकास की खींच-तान बहुत मची हुई है। हर कोई विकास को डंडे के बल पर अपने ही खूँटे से बाँधना चाहता है, खूँटा तुड़ाया नहीं कि डंडा लेकर अपने-अपने तरीके से लोग इस पर पिल पड़ते हैं, या फिर डंडे के बल पर इसे दौड़ाने लगते हैं। अंत में मेरा-तेरा से शुरू होकर विकास की छीछालेदर हो चुकी होती है। अब इसके बाद भी चैन नहीं पड़ता तो, विकास को पगलाया हुआ घोषित कर दिया जाता है। तात्पर्य यह कि, जो विकास को अपने खूँटे से बाँधने में सफल नहीं होता वही विकास के बारे में अनाप-शनाप बोल रहा है। यह बेचारा विकास इस चक्कर में अब राजनीतिक-पशु की तरह हो चला है। इसीलिए विकास को जब भी देखता हूँ, इस छीछालेदर के बीच इसे खूँटे से बँधे, हांफते हुए ही देखता हूँ।
जनता की तो कुछ पूँछो मत, उसे फ्री में विकास नहीं मिलता इसके लिए उसे वोट की कीमत चुकानी पड़ती है, और चुनाव दर चुनाव विकास के खूँटा-बदल में ही भ्रमित होती रहती है। उसके लिए तो खूँटा-बदल ही विकास है। एक बार विकास को लेकर मैं जनता को इसकी असलियत समझाने के चक्कर में पड़ गया कि विकास क्या चीज होती है, इसे समझो! इस चक्कर में मैंने विकास को उसकी सही जगह दिखाने की कोशिश की, तो ऊँचे स्थान पर विराजे ऊँची कुर्सी वाले ने मेरे इस प्रयास को “कुत्सित-प्रयास” कह डाला! मैं डर गया, मैंने समझ लिया, “भइया जो चल रहा है उसी को विकास मान लो, इसमें अपनी टांग मत अड़ाओ!!” और मैंने यही समझा कि, विकास को लेकर ज्यादा “ही-है..ही-है” नहीं करना चाहिए नहीं तो, इसे हिंसक कृत्य मानते हुए ऐसा करने वाले को ही विकास से वंचित कर दिया जाता है।