गरीबी क्यों ?
आज मै अपने दो मित्रो की कहानी साझा कर रहा हु.
१- मेरे एक मित्र रामाज्ञा है, हम लोग साथ साथ पढ़े लिखे थे, बचपन साथ में बीता था. अपने अपने कारणों से वे कही दूर चले गए, मै बनारस में रह गया. करीब १५-२० साल बाद इत्तिफाक से मेरी उनकी मुलाक़ात लखनऊ में हो गई. पहले तो ठीक से पहचान न हो पाई, लेकिन हलके से प्रयास से हम दोनों एक दुसरे को पहचान लिए. रामाज्ञ जी बोले की अगर कोई विशेष काम न हो तो मेरे रूम पर चलो कल घर जाना. मै उनके आग्रह को टाल नहीं पाया. वहा मेरा बहुत आवभगत हुआ, खाते पीते रात १० बज गया. इस दौरान मुझे उनके और उनके पत्नी के अलावा सिर्फ एक लड़का दिखा जिसकी उम्र करीब १५-१६ साल रही होगी. पलंग पर पसरे पसरे मैंने यू ही पूछ लिया की रामाज्ञा और बच्चे बाहर रहते है क्या? नहीं यही एक बच्चा तो है जो आपके बगल में है -बोले. नसबंदी करा लिया क्या या हुआ ही नहीं ! बोले-नसबंदी करा लिया मित्र. आज भी किराए के मकान में रहता हु. जब मै अपने लिए आजतक एक छत नहीं बना सका तो बच्चे को क्या देता. बच्चे को अच्छे ढंग से पढ़ा लिखा रहा हु उसकी हर छोटी मोती आवश्यकताये आसानी से पूरा कर दे रहा हु, अभी यह इंटर में है, पढ़ लिख कर कही एडजस्ट हो जायेगा तो मकान भी खरीद लूँगा. फिलहाल मुझे कोई कमी नहीं है, खुशहाल जिंदगी जी रहा हु, भविष्य के प्रति कोई टेंसन नहीं है.
2- दुसरे मित्र है तनकू सोनकर, जो हमसे काफी सीनियर है. सन १९७५ में BA करने के बाद उन्हें कोई जॉब नहीं मिला लिहाजा वे सहर चले गए और मंडी में पल्लेदारी करने लगे जिसमे उन्हें अच्छी रकम मिलने लगी, पढ़ा लिखा और किफायती जिन्दगी होने के कारण कम समय में ही कुछ पैसा जुटा लिए और अपना निज का आढ़त खोल लिए, उससे उन्हें अच्छी खासी आमदनी होने लगी और कालान्तर में चल कर आढ़त ही खरीद लिए. शहर में मकान भी बनवा लिए, निज का ट्रक भी खरीद लिए. इस समय वे संपन्न आढ़तियो में गिने जाते है. एक दिन मैंने यू ही पूछ लिया की तनकू इतना पढ़ लिखकर भी आपने पल्लेदारी किया ! वे हंसने लगे और बोले की ‘पाण्डेय जी यही सोचने वाले आज भी बेरोजगार है. मेहनत करने में डिग्री कही भी बाधक नहीं है बस यही सोच बाधक है.’