चंचल किरणें
शरद पूर्णिमा की शरद रात थी
चमक चांदनी छिटकी हुई थी ।
कनक किरणों के मोह जाल में
वियोगी वसुधा उलझी हुई थी।
तटिनी तट पर बेसुध बिखरी थी
जलधि जल में हलचल मची थी।
मयंक महिमा निहुर निहुर कर
रजनी रजनीश की हो चली थी।
अवनि अंबर रस प्रेम पगा था
ज्योति ज्योत्सना जाल बिछा था।
गोपी गोप संग रंगरास रचाकर
जग जुगनू जगमग हो चला था।
कलाअों का कलमल जादू था
चारू चंद्र का चंचल रूप था।
चमक चाँदनी की चंद्रिका में
मानव मनवा महक रहा था।
विहँस विहँस कली खिली थी
अली मिलन की आतुरता थी।
मलयाचल के मंद झोंकों से
चंद्र छटा चहूँ ओर बिखरी थी ।
— निशा गुप्ता
तिनसुकिया, असम