ईश्वर और हमारे सद्कर्म हमारे सबसे बड़े मित्र व रक्षक हैं
ओ३म्
मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता उसके जीवन की रक्षा की है। यह रक्षा हमारा एक ऐसा मित्र कर सकता है जो कभी विघ्नों व बाधाओं से स्वयं दूर है और जो कभी असुरक्षित नहीं होता। जो स्वयं सुरक्षित नहीं है, दूसरों से रक्षा व सहायता की अपेक्षा करते हैं, वह हमारी पूर्ण सुरक्षा नहीं कर सकते। विचार करने पर ज्ञात होता है कि हम एक विशाल वा वृहद ब्रह्माण्ड की एक बहुत छोटी सी इकाई हैं। यह ब्रहृमाण्ड भी प्रकृति के त्रिगुणी सूक्ष्म कणों वा परमाणुओं के घनीभूत होने से बना है। बनने व बिगड़ने की इसमें सम्भावना रहती है। जो चीज बनती है तो वह नष्ट भी अवश्य होती है। यह ऐसा ही है जैसे हर मनुष्य व प्राणी जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु होती है। गीता में इसे ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु’ कह कर समझाया गया है। हमें भी वृद्धावस्था में तो मृत्यु को प्राप्त होना ही है। यही ईश्वर व इस सृष्टि का सर्वमान्य नियम है जिसे सभी आस्तिक व नास्तिक स्वीकार करते हैं क्योंकि यह सृष्टि में प्रत्यक्ष घट रहा है। सब मनुष्यों का स्वानुभूत होने से कोई मनुष्य इससे इनकार नहीं कर सकता। अतः मृत्यु से तो हम बच नहीं सकते, बचना हमें मृत्यु से पूर्व आने वाले कष्टों से है। दुःखों से बचने के लिए किये जाने वाले कर्तव्यों का पालन ही हम कर सकते हैं। हम दुःखों से बचने के लिए अपनी बुद्धि के ज्ञान के अनुसार प्रयत्न भी करते हैं। हमारे यह प्रयत्न अधूरे ही प्रायः होते हैं जिससे अनेक ऐसे कष्ट व दुःख आते जाते रहते हैं जिनसे हम वेदज्ञान की सहायता से उनका आचरण कर बच सकते हैं। जब हम वेदसम्मत करणीय कर्म नहीं करते व प्राकृतिक नियमों जानबूछकर या अनजाने में अतिक्रमण करते व तोड़ते हैं, तो इसका परिणाम दुःख व निराशा होता है।
हमने पढ़ा, जाना व समझा है कि ईश्वर ने यह सृष्टि बनाई है। वह इसका स्वामी व अधिपति है। सृष्टि का प्रयोजन जीवात्माओं के सत्यासत्य वा शुभाशुभ कर्मों का भोग प्रदान करना है। यह क्रम अनादि काल से चल रहा है और हमेशा चलता रहेगा। हम यह भी जानते व समझते हैं कि सत्य नियमों का पालन हमारा रक्षक होता है और असत्य का व्यवहार हमें वर्तमान व भविष्य में दुःख व कष्ट देता है। अतः हमें अपने कर्मों पर गम्भीरता व सावधानीपूर्वक ध्यान देना है। हमें असत्य कर्मों से बचना है और कर्म करते समय कर्म के सत्यासत्य पक्षों का विचार कर केवल सत्य कर्मों को ही करना है। ऐसा करके हम अनेक दुःखों से बच सकते हैं। इस प्रकार से सत्य व सत्य-व्यवहार हमें दुःखों से बचाता है और हमारा रक्षक सिद्ध होता है। अपनी बुद्धि के अनुसार हम सत्य कर्मों का सेवन करते भी हैं परन्तु अल्पज्ञ होने के कारण अनेक बार हमारे कई निर्णय गलत हो सकते हैं। अतः सत्य की प्राप्ति भी आवश्यक है। सत्य प्राप्ति का स्रोत इस संसार को बनाने वाला ईश्वर वा उनका ज्ञान ही हो सकता है। विचार करने पर ज्ञात होता है कि ईश्वर ने लगभग दो अरब वर्ष पूर्व सृष्टि की रचना करने के बाद मनुष्यों को उनके जीवन निर्वाह करने के लिए कर्तव्याकर्तव्य व अन्य अनेक आवश्यक विषयों का ज्ञान दिया था जिससे मनुष्य आसक्ति को त्याग कर निष्काम कर्म करने में प्रवृत्त हों। इस ज्ञान से वह असत्य वा दुष्कर्म के भोगों से बचते हुए जन्म व मरण के कारण प्रारब्ध व पूर्व जन्म के कर्मों से बच सकते हैं।
करणीय व अकरणीय कर्मों का सत्य ज्ञान हमें ईश्वर द्वारा सृष्टि के आरम्भ में प्रदत्त ‘‘वेद ज्ञान” के स्वाध्याय व अध्ययन से होता है। वेदों का अध्ययन करने से पूर्व वेदांगों व उपांगों सहित वैदिक साहित्य व उसके सिद्धान्तों का प्राथमिक ज्ञान होना आवश्यक है। इसका अन्य साधन ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका आदि का अध्ययन है। इन ग्रन्थों के अध्ययन से प्राप्त ज्ञान की सहायता से वेदों के हिन्दी व अन्य भाषाओं में उपलब्ध भाष्यों को पढ़कर वेदों से परिचित हो सकते हैं। वेदों के आशय को जानकर पंचमहायज्ञ के अर्न्तगत ईश्वरोपासना, दैनिक अग्निहोत्र, पितृ यज्ञ, अतिथियज्ञ व बलिवैश्वदेवयज्ञ करते हुए परोपकार सहित निर्धनों व अनाश्रितों की सेवा का जीवन व्यतीत करते हुए कर्म के बन्धनों को क्षीण व जीर्ण कर सुखी जीवन व्यतीत कर सकते हैं। हम यह भी जानते हैं कि कर्म फल प्रदाता एक सर्वव्यापक ईश्वर ही है। वह सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने से हमारे सभी कर्मों का साक्षी होता है। अतः उसके ज्ञान वेद के अनुसार कर्म करने पर हम कर्मों के बन्धनों में फंसते नहीं अपितु उससे या तो मुक्त होते हैं या फिर दुःख देने वाले कर्मों से तो बचते ही हैं। योगाभ्यास रीति से ईश्वरोपासना व यज्ञोपासना आदि सहित पुरुषार्थ, सधना व स्वाध्याययुक्त वेदमय जीवन व्यतीत करते हुए हम समाधि एवं ईश्वर साक्षात्कार की ओर बढ़ते हुए विवेक प्राप्त कर सकते हैं जिसका परिणाम जन्म मरण से दीर्घ अवधि का अवकाश व मोक्ष होता है। यही मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य व जीवन की चरम उन्नति होती है। इसकी प्राप्ति होने पर ही मनुष्य जीवन पूर्ण सुरक्षित होता है। समस्त वैदिक साहित्य इसकी पुष्टि करता हुआ प्रतीत होता है। यह है भी सत्य क्योंकि सत्पुरूषों के जीवन व उपदेश इसमें सहायक होते हैं। अतः जीवन की रक्षा का एक प्रमुख आधार ईश्वर की उपासना सहित वेद व वैदिक ज्ञान से जुड़ कर उसके अनुसार कर्म करके प्राप्त किया जा सकता है।
संसार की रचना व पालन करने वाली सत्ता एक ईश्वर ही है। यह सच्चिदानन्दस्वरूप व सर्वव्यापक सत्ता है। जीवात्मा चेतन, एकदेशी व अल्पज्ञ सत्ता है। यह दोनों परस्पर सनातन साथी है। अनादि काल से साथ रहते आये हैं और अनन्त काल तक इन्हें साथ रहना है। मनुष्य जीवन के 50 से 100 वर्ष इस सृष्टि के बीते हुए अतीत के समय व भविष्य के अनन्त वर्षों की अवधि वाले भोग काल की दृष्टि से समुद्र में एक बूंद जल से भी शायद कम होगा। अतः हमें भौतिक जगत व अपने पारिवारिक व सामाजिक संबंधों के प्रति मोह का त्याग देना चाहिये और कर्तव्य भावना व विवेक बुद्धि से कर्म व कर्तव्यों को करना चाहिये। ऐसा करने से हमें दुःख नहीं होंगे वा कुछ होने पर उन्हें सहन करने की शक्ति हमें उपासना व स्वाध्याय आदि साधनों से प्राप्त होगी। अतः ईश्वर व अग्निहोत्र द्वारा हमें ईश्वर की उापासना करते हुए उससे निकट, गहरे मित्रतापूर्ण सम्बन्ध बनाने का प्रयत्न करना चाहिये। स्वाध्याय व योगाभ्यास आदि साधन ही मनुष्य की ईश्वर से मित्रता कराते हैं। हम जितना ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव को अपने जीवन में अपनायेंगें अर्थात् उसके अनुरूप अपने जीवन व आचरण को बनायेंगे, उतना ही अधिक हम ईश्वर के मित्र बनते हैं। महर्षि दयानन्द ने सन्ध्या यज्ञ विधि, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदभाष्य व आर्याभिविनय जैसे ग्रन्थ लिखकर हमारे इस कार्य को सरल कर दिया है। हमें आजीविका के शुद्ध साधनों को करते हुए ईश्वरोपासना व यज्ञ को भी करना है और सन्तोषी व अपरिग्रही मनुष्य बनना है। परिग्रह हमें ईश्वर से दूर करता है क्योंकि यह कार्य निर्धनों की सहायता करने से रोकता है जिससे हम परोपकार से दूर होकर स्वार्थी बनकर कर्म फल के बन्धनों में फंसते जाते हैं। अन्ततः यह भी दुःख का कारण बनते हैं। इससे बचने के लिए हमें अपनी विवेक बुद्धि को विकसित करना व उससे अपने कर्तव्याकर्तव्यों पर विचार करना है।
ईश्वर ही मनुष्यों का सच्चा रक्षक व मित्र के समान सहायक है। यह बात काल्पनिक नहीं अपितु सत्य व यथार्थ है। साधना व स्वाध्याय से इस तथ्य का विवेक व अनुभव होता है। अतः दुःखों व कष्टों से बचने के लिए ईश्वर से ही रक्षा व सुरक्षा की प्रार्थना जीवात्मा मनुष्य को करनी चाहिये और उसी से यह प्राप्त होती व हो सकती है। हमने संकेत किया है। वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय कर हमने यह जाना व समझा है। वैदिक साहित्य के स्वाध्याय का व्रत लें और अपने जीवन को न केवल इस जीवन में अपितु मृत्यु के बाद पुनर्जन्म व परलोक में भी सुरक्षित व उन्नत करने में वैदिक कर्तव्यों के पालन में आचारशील बनें। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य