पतझड़ सी तू लगती है ये जिन्दगी।
पतझड़ सी तू लगती है ये जिन्दगी।
हर दिन जिन्दगी तेरा एक पत्ता टूट रहा।
तेरे संग चलकर एक एक दिन छूट रहा।।
कांटे ही बिछे हैं क्यों तेरी राहों में
कितने पहाड छुपे है तेरी पनाहों में।
कहीं तू झील है, कहीं तू सागर के जैसी-
कोई पार करता हैं, कोई यहां पर डूब रहा।
हर दिन जिन्दगी…..एक दिन छूट रहा।।
कई मंजिलो से होकर तु गुजरती गयी।
सांसों की माला से मोती बिखरती गयी।
तुझे परवाह नही कोई, तू चलती ही जा रही
अब तो ठहर जा कहीं, हर पल तुझसे रूठ रह।
हर दिन जिन्दगी…….एक दिन छूट रहा।।
सावन में भी जल रही, कैसी ये तेरी आग है।
सूरज को देखते ही मचाती तू भागम भाग हैं।
पावों के छालों पर तुझको क्यो तरस आता नही।
कब तक तू दौडायेगी, हर कोई तुझको लूट रहा।
हर दिन जिन्दगी……….एक दिन छूट रहा।।
चार दिन की जिन्दगी है, मानती तू क्यों नही।
क्या (राज) है इस जगह पर, जानती तू क्यों नही।
पलकों में सावन पल रहे, मुड के कभी तो देख ले
चेहरे की झुर्रियां तो पढ, दम मेरा अब टूट रहा।
हर दिन जिन्दगी……….एक दिन छूट रहा।।
राज कुमार तिवारी (राज)