कविता
त्रासदी के दौर में ….
अच्छे दिन नहीं चल रहे हैं आजकल
अच्छे दिन आयेंगे का तिलिस्म दिनों को धकेल रहा है
या यूं कहिये कि ठेल रहा है
सैंकड़ों हाथ आज बिना काम के जैसे अपाहिज हो गये हैं
भूखे पेट रोटी रोटी कराह रहे हैं
धरती पर गिरते खून के छींटे
सत्ता की सफेद कमीज तक पहुँच रहे हैं
वर्दियों पर बदनुमा दाग दूर दूर से दिखने लगे हैं
भयावह भयानकता लिए बड़ा ही त्रासद दौर है
रोज त्रासदी के कई जीवंत चित्र डराने लगे हैं
सहमे सहमे मां-बाप रास्तों को ताकते दृष्टिगोचर होते हैं
यह कैसी त्रासदी है कि
युग के राम ही रावणों को बचाने में लगे हैं
दिलों की तंग गलियों के संकरे मोड़ों पर
संवेदनाओं के उठाते जनाजों में आम आदमी के कंधे छिलने लगे हैं
आपाधापी के इस गर्म मौसम में
भावनाओं की कोमल कोंपलें मुरझाने लगी हैं
शब्दों की बुनावट में जुटे चर्चित कवियों की
कविताओं की मार्क क्षमता भी सीलन लगे पटाखे की तरह फुस्स
करके ही खत्म हुए जा रही है
फिर भी परिवर्तन की आस में उनके रोजनामचे में रोज नई
कवितायेँ दर्ज हो रही हैं
वक्त की पैबंद पर लगे ये शब्दों के टांके क्या रंग
लाते हैं
देखना बाकी है वर्तमान त्रासदी के इस दौर में ||
— अशोक दर्द