तरही ग़ज़ल
मैंने गीत गाये हैं कई, तारों को दिल के छेड़कर
मुझे स्वरों का तो पता नहीं, जो गीत मैं अपने भी गा सकूँ
तन्हा-तन्हा हो रही है ये मेरी ज़िंदगी, कोई साथ भी न मेरे चल सका
ऐ ख़ुदा तू रहम कर ज़रा, कि मैं बोझ ग़म का उठा सकूँ
वो ख़ुदी में अपनी ख़ुदा बनकर, मेरी राहों से अलग तो हो गया
अपनी शामों को शाद करके मैं, उन लम्हों को तो ज़रा बढ़ा सकूँ
लिख-लिखकर रखती रही जो मैं, अफ़साने अपने प्यार के
जज़्बात जो दिल में हैं खौलते, कभी उनको भी तो मैं सुला सकूँ
किस घड़ी उनसे मुलाक़ात हुई, कि बेख़ुदी-सी दिल पे छाने लगी
बन गये थे जो सपनों के महल, अब कम-से-कम उन्हें तो ढहा सकूँ
दुश्मनी तो बढ़ा लेते हैं हम, खुद अपनी ही नादानियों से
रब ऐसा रिज़्क अब देना मुझे कि मैं, विश्व-मैत्री तो बढ़ा सकूँ
कोई होता नहीं गरीबों का, वो जो अँधेरे में भूखे ही रहते हैं
दे मुझको इतनी हिम्मत कि मैं, शमा उनके दर पे जला सकूँ
सारी क़ायनात हो जाये मेरी ही, और मेरी ही मर्ज़ी चलती चले
पैदा हो गई ऐसी ललक मुझमें कि मैं, कुन्बा दोस्ती का बढ़ा सकूँ
कितनी खाते हैं ठोकरें दर-दर की, जो कई बदनसीब यहाँ
भूले-भटकों को मैं ही ऐ ख़ुदा, सही राह पर तो ले जा सकूँ
चलती ही चली जा रही हूँ यारब अपनी ही, बेख़ुदी में ‘ रश्मि ‘ मैं
मुझे मंज़िलों का पता नहीं, जो क़दम मैं अपने बढ़ा सकूँ
— रवि रश्मि ‘अनुभूति’