“जगिया की वापसी”
वर्षों से किसी की जुबान पर जिसका नाम भी नहीं आया। भूल गई थी उसके यादों की सारी तस्वीर जो कभी बचपन में संग खेला करती थी। ठिगना कद, घुघराले बाल, छोटी -छोटी आँखे, पर नजर ऐसी कि अंधेरे में सुई भी ढूंढ ले, नाम जगिया, हाँ पूरा याद है हमलोग उसे जगजग कहते थे।
एक दिन गाँव में खबर उठी कि जगिया चार दिनों से गायब है और किसी को उसके बारे में कोई पता नहीं है। उसकी माँ का बुरा हाल था आधा रोती थी तो आधा बिलबिलाती थी। आँखे सूज गई पर, जगिया का कोई पता नहीं चला। उसे जमीन लील गई कि नदी-नाले ने बहा दिया, कोई कुछ भी कह पाने की स्थिति में नहीं था। कुँए और तालाब नजदीक थे उन्हें खंगाला गया पर उस बौने का कोई अता-पता न लगा।
दिन, महीना में बदला और महीना साल में बदलता गया। यहीं कुछ 25 साल बीत गए और जगिया बिना लिखा हुआ इतिहास बनकर रह गया। उस जमाने मे न कोई रपट होती थी न फोटो खिंचाई ही संभव थी। नाम ही पहचान था जो एक बार भूला तो सब कुछ गायब हो जाता था। जगिया का भी वही हाल हुआ धीरे-धीरे विस्मृत हो गया।
उसका परम मित्र अगर कोई था वह है आसरे जो आज भी अपनी याद में कभी-कभी जगिया को जिंदा कर देता है। आसरे भी उसी के चाल-चलन का इंसान है पर कायर नहीं है अपने वजूद से लड़ता रहता है। एक बुरी लत (गांजा पीने की) को छोड़ दिया जाय तो आसरे धर्म कर्म का धनी आदमी है। हर साल गंगा स्नान जरूर करता है और साधुओं के साथ कभी कभार धूआँ भी उड़ा लेता है।
आसरे इस बार अर्धकुम्भ का स्नान करने हरिद्वार गया था और साधुओं की बैठक में शामिल हो गया, दम लगाया तो धुँए के गुब्बार में उसको जगिया का चेहरा नजर आया और वह चिलम फेंककर उस महात्मा की जटाओं से लिपट गया और चिल्ला उठा, अरे तुम यहाँ, हे प्रभु क्या इत्तेफाक है, मेरा जगिया बाबा बन गया है, दाढ़ी और जटाओं से घिर गया है। बोलो बाबा तुम जगिया, जगपत हो न, और जगिया ने आसरे को गले से लगा लिया। हाँ मेरे मीत मैं ही जगिया हुँ। जब तुम्हें बैठक में देखा तो पहचान गया पर हिम्मत जबाब दे गई थी। अगर तुम न पहचानते तो मैं चुप ही रहता और मिलकर फिर से खो जाता। रात कैसे गुजरी पता नहीं चला, सुबह दोनों का गंगा स्नान हुआ और जगिया को लेकर आसरे गाँव को चल दिया……
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी