उम्र और खुशियां
चांदनी रातों में अहसास भी करीब होते हैं ,
चाँद के नजारे भी जैसे रकीब होते हैं ।
पिघल रही है समा देखो चाँद के नूर से ,
बेवक़्त बेहिसाब ग़मों के दौर होते हैं ।
भूल जाओ अतीत को कहना आसान है ,
नए दौर के फ़साने भी आज मजाक होते हैं
छलक जाते हैं अक्सर आंसूं महफ़िल में ,
भीड़ में होकर भी हम अकेले होते हैं ।
फिक्रमंद कौन है आज के दौर में इश्क़ का
इश्क़ को खाली वक़्त का जाम कहते हैं ।
गुजार दी तमाम उम्र अनजानी खुशियों में ,
वीरान सांझ को वो बुढ़ापे का दौर कहते हैं
— वर्षा वार्ष्णेय, अलीगढ़