ग़ज़ल
किसकी मानूँ और भला किसको ठुकराऊँ?
कुछ कहने से अच्छा है कि चुप हो जाऊँ
भीड़ भरी दुनिया में ,कहीं न खो जाये तू
आ तेरी आँखों मे डूब के मै खो जाऊँ
इक कमजोर के आँसू प्रलय मचा सकते हैं
गम के ठेकेदारों को कैसे समझाऊँ?
देख ! सभ्यता के कपड़े सब तार तार हैं
कहाँ कहाँ शब्दों के मैं पैबन्द लगाऊँ ?
कहीं आत्ममंथन मे आज भी नींद न आये
अच्छा होगा शान्तचित्त हो मैं सो जाऊँ
हर इक गली,मोड़ ,चौराहों,पर गम ही गम
बता लेखनी! किस किस से तुझको मिलवाऊँ?
— डा. दिवाकर दत्त त्रिपाठी