खट्ठा-मीठा : नये धर्म की तलाश
“मैं अब हिन्दू धर्म छोड़ दूँगी!” अचानक बैठे-बैठे सोच में डूबे हुए उनके दिमाग़ का कोई कीड़ा कुलबुलाया और उन्होंने उठकर ऊँचे स्वर में यह घोषणा कर डाली। बग़ल के कमरे में बैठे हुए चन्द चमचे यह घोषणा सुनकर डर गये और उनके कमरे में घुस आये।
“क्या हुआ भैन जी?” सबसे मुँह लगे चमचे ने हिम्मत करके पूछ डाला।
“अब यह धर्म रहने लायक नहीं रहा। कोई मुझे वोट नहीं देता। न सवर्ण, न अवर्ण, न पिछड़े, न दलित! एक तो वैसे ही इस ससुरे धर्म से मेरा कोई लगाव नहीं था, अब तो एकदम ही मन उचट गया है। मैं इसे छोड़ दूँगी।”
चमचों ने सामूहिक रूप से “हूँ” का उच्चारण किया और सोचने लगे।
“आप किस धर्म में जायेंगी, भैन जी?” वरिष्ठ चमचे ने पूछ लिया।
“यही तो सोच रही हूँ। अभी तय नहीं किया।” वे निराशा के स्वर में बोलीं।
“इस्लाम क़बूल लो। आजकल हिन्दू धर्म वाले सब मुसलमान बन जाने की धमकी देते हैं।”
“नहींऽऽ!” वे चीखीं, “उसमें तो मूर्तिपूजा हराम है। मेरी सारी मूर्तियाँ तुड़वा देंगे।”
“यह बात तो सही है।” दूसरे चमचे ने हाँ में हाँ मिलायी।
“अगर कठमुल्लों ने बुर्क़ा पहना दिया, तो मेरी सारी ख़ूबसूरती बुर्क़े में रखी रह जाएगी।” वे फिर निराशा में डूब गयीं।
“ईसाई बन जाइए। उसमें बुर्क़े का कोई झंझट नहीं।” तीसरे चमचे ने अपना ज्ञान बघारा।
“उनके पास तो वोट ही नहीं है। मेरी पार्टी का क्या होगा?” उनकी हताशा खत्म नहीं हो रही थी।
“फिर वहाँ आरक्षण भी नहीं मिलता।” पहला चमचा बोला।
“फिर तो हिन्दू धर्म में ही रहिए।” दूसरे चमचे ने निराशा से कहा।
“नहीं, हिन्दू धर्म तो छोड़ना ही है। सोच रही हूँ बौद्ध बन जाऊँ।”
“हाँ यह ठीक रहेगा, भैन जी!” पहला चमचा बोला। अन्य चमचों ने उसके समर्थन में सिर हिलाया।
इस तरह अन्त में यही तय हुआ कि वे बौद्ध बनेंगे। इससे कोई अधिक अन्तर भी नहीं पड़ेगा और आरक्षण भी मिलता रहेगा। यानी “रिंद के रिंद रहे, हाथ से जन्नत न गई।”
— बीजू ब्रजवासी
कार्तिक शु ८, सं २०७४ वि (२७ अक्तूबर २०१७)
बहुत सुंदर व्यंग्य आदरणीय !
हार्दिक धन्यवाद !