लघुकथा : ऊँची उड़ान
रीना को नौकरी करते पन्द्रह साल हो गये थे, न कोई तरक्की मिली ना ही तनखाह बढ़ी| आखिर उसने मन कडा कर नौकरी बदलने का फैसला कर लिया| जब ये बात अपनी एक सहेली से शेयर की तो उसने कहा, “जब तक आप हिम्मत नही करेंगी कुछ नही होना, चाहे कितना मेहनत करती चली जाओ|” रीना नये कदम और नई राह सोचती सी खो गई, “जब तक आदर्शवादी रहूंगी, कुछ भी प्राप्त नहीं होगा| मुझे सफलता के लिये कोई छलांग सा रास्ता चुनना होगा| खुद की परेशानी में गिरती ही जा रही हूँ|” उसने शिक्षा विभाग एक मुख्यालय में आना–जाना शुरू किया और एक–दो सहेली बनाई, उनकी मदद की| इस तरह घर आना–जाना हो गया| उसको आफिस की बहुत सी बातों का पता चला और कामयाबी पाने के ढंग का भी ज्ञान हुआ| दफ्तर में डियूटी लगवाकर उसने बहुत से दफ्तरी कामों में मदद करनी शुरू कर दी| सारा आफिस का डाटा कम्पयुटर पर अपलोड करना था और उसने वो काम अपनी जुम्मेवारी में ले लिया| इस रिकॉर्ड को अपलोड करते हुए कई अध्यापकों के डाटा से तरक्की के नुक्तों का पता चला| जिला शिक्षा अधिकारी उसके काम से बहुत प्रभावित हुये और वो रीना के हितैषी बन गए| उन्होंने खुद कहा, “रीना, अपना तरक्की के लिये केस बना करदो , तुम बहुत मेहनती और लगन से काम करने वाली प्रतिभाशाली कर्मचारी हो| डिपार्टमेंट को ऐसे मेहनती और लगन से काम करने वालों की जरूरत है|” आखिर सहेली की ऊँची उड़ान की सलाह वरदान साबित हुई|
— रेखा मोहन