कविता : चिट्ठियाँ जाने कहाँ खो गयीं
एक ज़माना था
चिट्ठियाँ ख़ुशियों का सबब बनती थीं
दुखों के पहाड़ भी
टूट पड़ते थे पत्र पढ़कर
संदेसा देस से आये या परदेस से
चेहरे पर चिंता की किरण उभरे , या
प्रसन्नता की लहर दौड़ जाए
चिट्ठियों का इंतज़ार रहता था
घुड़सवार , कपोत या डाकिया रखते थे
एक महत्वपूर्ण स्थान
चिट्ठी भेज कर पहुँचने की प्रतीक्षा ,
पहुँचने पर ‘उत्तर’ का इंतज़ार
चिट्ठी न हुई , कोई अभिन्न अंग हुआ परिवार का |
सरहद से बेटे, भाई या पति का पत्र
जीवन-मरण का प्रश्न हुआ करता था ,
आज भी है ,
किन्तु माध्यम बदल गए
एसएमएस, ईमेल ने हथिया लिया चिठ्ठी का स्थान
गुम हो गए वो एहसासात के पल
जो दर्ज़ हो चिट्ठी में, बन जाते थे जीवन भर का ख़ज़ाना
कभी आँसुओं से भीग जाता था ख़त
कभी चुम्बन -जड़ित शर्म के दुपट्टे में लिपट महक जाता था
पाती पिया की हो या मित्र की
अपनों की हो या अपनों के लिए
जीवन की थाती थी
आज वो स्थान ‘रिक्त’ है
आज चिट्ठी कहीं खो गयी
‘पोस्टमैन’ केवल औपचारिकता निभाता है
पार्सल, किताबें , कागज़ात तो दे जाता है
‘चिट्ठियाँ’ जाने कहाँ भूल आता है…
— पूनम माटिया
बहुत सुंदर रचना ! गुजरा जमाना याद आ गया ।