कविता

दीपक का अहंकार

अकड़ दीप की देख के मैंने, प्रश्न एक जब उससे पूछा-
“किस कारण तू झूम रहा है, किए हुए सिर अपना ऊँचा?”
मस्त पावन के झोंकों के संग, उसने अपना अंतस खोला
कुछ मुसकाया, कुछ इठलाया, फिर वह यह हौले से बोला-
“तूफानों की गोद में मैं टीएम, जनम-जनम से हँसता आया
अँधियारों ने घेरा जब भी, पल भर भी मैं न घबराया
मैंने देवों के चरणों में अपना है अस्तित्व लुटाया
रघुवर के घर लौट आने पर, रातकली बन मैं मुसकाया
मैं दिनकर का वंशज बनकर, मानवता को राह दिखाऊँ
कुटिया के दरवाजे सज मैं, राजमहल को सदा जलाऊँ
नीलगगन के सारे तारे, देख के मुझको शरमाते हैं
मेरे जलते ही वे सारे आसमान में, जल जाते हैं
किन्तु उस दिन मेरी आभा और दिव्य-सी हो जाती है
जब शहीद के तन की माती, मेरे जैसी हो जाती है
तब मानव की प्रथम खोज पर मैं, यह शीश नवाता हूँ
मैं अपने दीपक होने पर, मन-ही-मन इतराता हूँ।”

— शरद सुनेरी