तुम्हें प्रेम नहीं अभिमान रहा
हे नर तुम्हें सदैव ही अभिमान रहा
यहीं नारी जीवन का त्रस्त रहा
सत्य युग हो
चाहे त्रेता
या फिर हो द्धापर
या कलयुग ही
यह त्रासदी युग युग में रहा
हे नर तुम्हें सदैव ही अभिमान रहा
इसका साक्षी
प्रमाण हैं
इतिहास के पन्नों में
अक्षर अक्षर में
शब्द शब्द में
वाक्यों का ही नहीं
बल्कि संपूर्ण पुस्तक का भी
यहीं सार रहा
हे नर तुम्हें सदैव ही अभिमान रहा
नारी जब भी करती है प्रेम
अपने अस्तित्व के अंश अंश से
निश्छल हृदय से
अंर्तमन से
तन से और
आत्मा से
उसका स्वाभिमान मर्यादा कर्त्तव्य से
बढकर प्रेम ही होता है
केवल प्रेम
किंतु तुम्हारें लिए सदैव ही अभिमान रहा
हे नर कभी तुमने मर्यादा के नाम पर
दिया वनवास मुझे
कभी कर्तव्यों के कारण
अजीवन प्रतीक्षा का संतप्त
कभी बांंटा भाईयों में
वचन के कारण
तो कभी हरण होने दिया वस्त्र को
नीति-नियम के कारण
कभी पथ्थर बनाया
सजा दिया दूसरे की पाप की
कभी अपने सम्मान के लिए
जौहर की वेदी पर बैठी
कभी सती हुई तेरे संग
तुमनें प्रेम में भी कर्तव्य समाज मर्यादा धर्म को प्रथामिकता दी
मैंने प्रत्येक युग में केवल प्रेम किया
किंतु तुम न कर सकें केवल प्रेम
तुम्हें प्रत्येक युग में अभिमान रहा
— अर्पणा संंत सिंह