“गज़ल”
आप के पास है आप की साखियाँ
मत समझना इन्हें आप की दासियाँ
गैर होना इन्हें खूब आता सनम
माप लीजे हुई आप की वादियाँ॥
कुछ बुँदें पिघलती हैं बरफ की जमी
पर दगा दे गई आप की खामियाँ॥
दो कदम तुम बढ़ो दो कदम मैं बढूँ
इस कदम पर झुलाओ न तुम चाभियाँ॥
मान लो मेरे मन को न बहमी बुझो
देख लो उड़ गई आप की झाकियाँ॥
चाह से आह निकले सुनो तो कभी
पास आती नहीं आप की दरमियाँ॥
दूर “गौतम” खड़ा सोचता की कभी
ऋतु बदली नहीं आप की साथियाँ
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी