ताजा खबर बनाम ब्रेकिंग न्यूज
इधर क्या हो रहा है कि लिख नहीं पा रहा हूँ.. लिखास तो लगती है, लेकिन लिखते समय मन में “ब्रेकिंग न्यूज” सी कोई बात उठती है और लिखने से मन उचट जाता है। अब मन में जो चीज चल रही होती है उसमें रुचि कम हो जाती है। इससे मन से लिखास का भाव रफूचक्कर हो जाता है। “ब्रेकिंग-न्यूज” सी बात में उलझे मन से मुझे क्या लिखना था यह बात दिमाग से निकल जाती है। पता नहीं ये “ब्रेकिंग न्यूज” सी बातें दिमाग को जगाती हैं या सुलाती हैं।
एक बात और है, पहले क्या होता था कि कुल ले देकर सुबह का अखबार ही हमें खबर से रूबरू कराता था। मुझे याद है, मेरे दादा जी पहले पहल गाँव में अखबार मंगाना शुरू किए थे। हम भी प्रत्येक सुबह अखबार आने का बेसब्री से इंतजार किया करते। एक दूबे जी जो वृद्धावस्था की ओर कदम बढ़ा रहे थे, वही हमारे यहाँ अखबार लाया करते। दूबे जी बाजार के चौराहे से अखबार लेकर बाँटने निकलते, हाँ हम अपने कस्बे को बाजार ही कहते हैं, तो डेढ़ किमी की दूरी खरामा-खरामा तय करते हुए हमारे गाँव तक पहुँचने में वे एक घंटा लगा देते। कभी-कभी ज्यादा देर होने या फिर दादा जी के यह कहने पर कि “नन्हकवा, इतनी देर होइ गवा दूबे अबइ तक नाहीं आये!” तो हम अपने घर से सौ मीटर दूर गुजरती सड़क पर जाकर खड़े हो जाते और बेसब्री के साथ उनकी राह तकने लगते। खैर..
दूबे जी के आते ही हम खुशी के साथ लपक कर उनसे अखबार लेते और वे आगे बढ़ जाते। इसके बाद आगे उन्हें छह किमी दूर और जाना होता था। वैसे दूबे जी अखबार लेकर हमारे घर तक आते, अखबार देते और चाय पीकर आगे निकलते। हाँ, दूबे जी की एक विशेष बात पर हमने गौर किया था, हमारे घर की ओर अपनी साइकिल मोड़ते ही वे “आज की ताजा खबर” के अंदाज में किसी समाचार-शीर्षक को बोलते हुए सुनाई पड़ते। लेकिन वह खबर हमारे अखबार की प्रमुख हेडिंग नहीं हुआ करती। हमारे यह पूँछने पर यह किस अखबार की खबर है, तो वह अपने दूसरे हाथ में लिए अखबार को हमें दिखाते हुए कहते इसमें छपा है! फिर हम उस अखबार को पढ़ने लगते। इसी बीच दूबे जी चाय पी चुके होते। और कभी-कभी उनका वह अखबार भी बिक जाता। धीरे-धीरे हमने देखा कि हमारे गांव में ऐसे ही उनके कई ग्राहक हो गए थे।
वैसे अब “ताजा खबर” वाला जुमला कम सुनाई पड़ता है। क्योंकि इधर चौबीसों घंटे चलने वाले समाचार चैनल आ गए हैं। इसीलिए अब ब्रेकिंग-न्यूज का जमाना आ गया है। अब तो, प्रत्येक खबर ही ब्रेकिंग न्यूज बनकर आती है। जैसे, हम अब समाचारों की दुनियाँ में ही रहते हैं और किसी भी नई घटना को समाचारों की यह दुनियाँ लपकने के लिए तत्पर होती है। लपकने के दौरान ही यह घटना-अघटना जो भी हो, ब्रेकिंग न्यूज रहती है बाद में, यह भी वैसे ही खबरों की दुनियाँ में खो जाती है। वैसे भी कोई न्यूज, न्यूज की दुनियाँ में प्रवेश करने के बाद न्यूज नहीं रह जाता और अगर आप उसे ही न्यूज समझ उसमें खोए रहते हैं तो ये न्यूज देने वाले आपके इस खोएपन को ब्रेकिंग-न्यूज के रूप में ब्रेक कर देते हैं। मतलब भाई, न्यूजों का महत्व केवल ब्रेकिंग भर का ही है और कुछ नहीं। किसी न्यूज में खोए नहीं कि आपके सामने अगला माल धर दिया जाता है।
हाँ, इसका भी अपना एक अर्थशास्त्र होता है, आखिर है तो मार्केटिंग का ही जमाना न। तो अखबार वाले दूबे जी इस बात को समझते थे। इसीलिए जिस अखबार को हमें देते थे, उसकी नहीं दूसरे अखबार के शीर्षक को “ताजा खबर” के अंदाज में बोलते चले आते और इसे सुनकर कोई न कोई उनके अखबार को खरीद भी लेता।
हाँ, एकाध “ब्रेकिंग” या एकाध “ताजा” हो तो चल जाता है, लेकिन प्रतिक्षण “ब्रेकिंग” प्रतिक्षण “ताजा” की दुनियाँ मन-मस्तिष्क को एक अजीब से हवालात में कैद कर देती है; फिर इससे बाहर आने का जी चाहने लगता है।