कविता

जिन्दगी, उलझती चली गयी

जिन्दगी बस रेत है, फिसलती चली गयी।
ठहरने की थी आरजू, निकलती चली गयी।
ये हवाएं कुछ कम नही, तूफान बन गयी।
मंजिलों की राह में धूल, उड़ाती चली गयी।
जिन्दगी बस रेत है,… धूल उड़ाती चली गयी।

चार दिन की जिन्दगी में, कुछ समझ पाये नही
जिसकी थी आरजू वो, दिन कभी आये नही।
कदमों के निशां जब मुझे, नजर आने लगे यहां
मंजिल थी सामने और धूप, ढलती चली गयी।
जिन्दगी बस रेत है…… धूल उड़ाती चली गयी।

सांसों के धागे बह रहे, हर लम्हे कुछ कह रहे।
छाले पडे है पांवों में, फिर भी सितम वह सह रहे।
दल दल यहां कितने है, कुछ पता न चल सका।
सुलझाने के वास्ते जिन्दगी, उलझती चली गयी
जिन्दगी बस रेत है……….धूल उड़ाती चली गयी।

कहने को सावन आया है, नमीं नजर आई नही।
पतझड बीत गया फिर भी, बसंती लहर छाई नही।
शजरे ताक रही ऊपर को, बादल तुम कब बरसोगे।
बरखा में भी तपन बडी, आंख बरसती चली गयी।
जिन्दगी बस रेत है…………..धूल उड़ाती चली गयी।

फुहार की थी आरजू, विजलियां बरस रहीं।
तमन्ना-ए- फूल को, तिलतियां तरस रहीं
जख्मों पर मेरे अब दवाई, कांटे लगाने लगे
(राज) करनें की जूस्तजू, बुझती चली गयी।
जिन्दगी बस रेत है……..धूल उड़ाती चली गयी।

राज कुमार तिवारी 'राज'

हिंदी से स्नातक एवं शिक्षा शास्त्र से परास्नातक , कविता एवं लेख लिखने का शौख, लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र से लेकर कई पत्रिकाओं में स्थान प्राप्त कर तथा दूरदर्शन केंद्र लखनऊ से प्रकाशित पुस्तक दृष्टि सृष्टि में स्थान प्राप्त किया और अमर उजाला काव्य में भी सैकड़ों रचनाये पब्लिश की गयीं वर्तामन समय में जय विजय मासिक पत्रिका में सक्रियता के साथ साथ पंचायतीराज विभाग में कंप्यूटर आपरेटर के पदीय दायित्वों का निर्वहन किया जा रहा है निवास जनपद बाराबंकी उत्तर प्रदेश पिन २२५४१३ संपर्क सूत्र - 9984172782