कविता

श्रृंगार….

सच कहूं तो !
श्रृंगार के नाम पर मुझे
चुरी, सिंदूर, बिंदी के सिवा
कुछ और भाता नहीं

नहीं कर पाती हूं
अन्य कोई दूजा श्रृंगार मैं
शायद इसकी वजह भी हो तुम

कभी कहा ही नही तुमनें
करो न सोलह श्रृंगार प्रिये

कहते भी क्यों?
तुम्हारा मन ही इतना सुन्दर है कि
जिस हाल में भी रहती हूँ मैं
अपना संपूर्ण प्रेम मुझपर
बलिहार करते हो

मेरे लिए तुम्हारी सोच
श्रृंगार से निखरा बदन नहीं
मेरे मन का सुन्दर होना है

जो तुम मुझमें अपने लिए
स्पष्ट महसूस करते हो

मेरा हृदय तुम्हारे लिए
प्रेम श्रृंगार से अभिभूत है
फिर मुझे किसी अन्य श्रृंगार की
क्या आवश्यकता है?

अपने अंदर तुम्हें महसूस करना
मंद-मंद मुस्काना
बदन की सिरहन
आँखों में तुम्हारी तस्वीर का होना

और फिर तुम्हें देखकर
खिलते फूलों की खुशबु की तरह
दमक उठना……

यही तो है !
मेरा सम्पूर्ण वास्तविक श्रृंगार
प्रेम श्रृंगार….
हाँ मैं करती हूँ प्रेम श्रृंगार….

*बबली सिन्हा

गाज़ियाबाद (यूपी) मोबाइल- 9013965625, 9868103295 ईमेल- [email protected]