प्रदूषण का दानव
यह सब समझ रहे हैं की दिल्ली की हवा क्यों आजकल ढीली है, पर लगता है की संबंधित सरकारें या तो समझ नहीं रही हैं या ना समझने का नाटक कर रही हैं।
कल तक जो जाड़ों में बिस्तर को गर्म करने के काम आती थी, डंगर का चारा होती थी वही पुवाल तीन तीन प्रदेशों के लिये सिरदर्द बन गयी है।
खेती के अंधाधुंद यंत्रीकरण ने जहाँ जानवरों की उपयोगिता समाप्त प्राय कर दी है वहीं गाँवों की बेरोज़गारी भी बढ़ा दी है। इसलिये पुवाल का चारे में उपयोग कम हो गया। गाँव देहात में सम्पन्नता आई तो मकान पक्के हो गये और बेड वार्मिंग का भी काम ख़त्म हो गया। थ्रैशर के इस्तेमाल से जो भुस बचती है वो चारे के काबिल नहीं रह जाती। फिर आप खुद सोचें की किसान क्या करे इस पुवाल का !
अभी तो पंजाब और हरियाणा ही पुआल जला रहे हैं पर कल इस होलिका दहन में और भी प्रदेश सम्मलित हो जाएँगे , इसमें कोई संदेह नहीं। ज़ाहिर सी बात है की हमारी सरकारों को वैज्ञानिकों के साथ मिल कर इसके निवारण का हल ढूँढना चाहिये। दुनिया में गेहूँ और धान, दोनों के पुवाल से काग़ज़, दफ्ती और प्लाईवुड बनाने की कई तकनीकें उपलब्ध हैं जिनके प्रयोग से इस समस्या का हल संभव है। देश में काग़ज़ और प्लाईवुड उद्योग पूर्णतयाः विकसित है एवं इनकी माँग भी खूब है, प्रचालन तंत्र अर्थात लॉजिस्टिक्स भी विकसित है जिससे पुवाल को खेतों से पेपर या प्लाईवुड मिल तक पहुँचाने में कोई समस्या नहीं आनी चाहिये। तो फिर हमारी सरकारें इस हल पर अमल क्यों नहीं करतीं ?
यह सब होगा अवश्य, परंतु जब कुछ आम लोग दम घुटने से मर जाएंगे, तब। हमारे देश में समस्यों के हल का यही प्रचलित तरीका है। लंदन में जब टेम्स नदी के प्रदूषण से लंदन वासियों का जीना हराम हो गया, यहाँ तक की वहाँ की संसद, वेस्टमिनिस्टर एबी में, जो नदी पर ही स्थित है, साँसदों का बैठना मुश्किल हो गया और रानी ने संसद को तब तक संबोधित करने से साफ मना कर दिया जब तक की समस्या का निदान नहीं हो जाता, नदी को साफ करने की मुहिम को अंजाम मिला। हमें यह परिपाटी उन्हीं से तो मिली है।
दरअसल, हमारे नेता, जो हमारे बीच से ही उठते हैं पर सत्ता के वैभव में हमको क्या, अपने पुराने फटेहाल दिनों को भी भूल जाते हैं, उन्हें जगाना आसान नहीं होता। जब किसी वाकये के चलते सामाजिक भर्त्सना होने लगती है और हाथ से सत्ता सुख जाने की संभावनाएँ बनने लगती है तभी समस्या हल की वास्तविक दौड़ भी शुरू होती है।
कहते हैं की हर घूरे के दिन फिरते हैं, देखिये, घूर बनी दिल्ली के दिन कब बहुरते हैं ! फिलहाल मैंने भी यही सोच रखा है की जब तक दिल्ली के वायु प्रदूषण की समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो जाता, उधर का रुख नहीं करूँगा।