गज़ल
वो खत के पुर्जे उडा रहा था
हवाओ का रुख दिखा रहा था
बन लत ये नशा बढा रहा था
सदाओं का हस्र दिखा रहा था
मिला जो अपने हिसाब मन जो
बफाओ का रुख दिखा रहा था
ये हंस के तपा चिढा रहा था
हर घर सहा तब्सिरा रहा था
सुना दवा आज़मा रहा था
किसको क्या ये थमा रहाथा
वची कहानी को हम लिखेंगे
हर हर्फ उस को डरा रहा था
वज़ा जुबाँ पे सभाल के थी
नज़र झुका के बता रहा था
— रेखा मोहन